सहर, सहर ना रहा तो रात का क्या फ़ायदा,
इंसान, इंसान हीं ना रहा तो ज़ज़्बात का क्या फ़ायदा!
हम निकलें थे इस सहर की खूबसूरत बनाने-
खूबसूरती बिक रही, इबादत का क्या फ़ायदा!
हम चाहते है, खुशनुमा माहौल बने हर घर में,
अब घर, घर ना रहा तो, मकान का क्या फ़ायदा!
हो रहे बदनाम यहाँ सब नाम वाले-
नाम, नाम ही रहा तो सरनाम का क्या फ़ायदा!
सरेआम लूट रही है माँ-बहनो की अस्मत यहाँ-
गर करना है धमाका, तो इस खुरापात का क्या फ़ायदा!
बनाना है तो बना, लड़के अपना मुक़द्दर अब-
समुंदर की रेत पर नाम लिखने से क्या फ़ायदा!
अब तो शहर भी शरमा जाता है, तेरे कर्मों से-
हो गये है सब हैवान तो, इंसानियत का क्या फ़ायदा!
हम निकले हैं इस शहर-ए-सहर को, मुस्कान देने-
नही चला सकते सत्ता, तो झूठी अदालत का क्या फ़ायदा!
वो दिन दूर नही “प्रियम” जब बिखेरेगी सहर, मुस्कान-
ज़म के बरस जा अब, इन छोटी बरसात का क्या फ़ायदा!
सहर, सहर ना रहा तो रात का क्या फ़ायदा,
इंसान, इंसान हीं ना रहा तो रात का क्या फ़ायदा!