हमने खुद को समेट लिया है जब एक दायरे में
बेवजह क्यों सब आकर भीड़ बढ़ाते हैं ।
शायरा नहीं हैं, ये तो है मुझे भी यकीन
फिर हर अफसाना ग़ज़ल कैसे बना लेते हैं ।
गुफ्तगू जरा सी हो गई गर किसी से भी
लोग कई तरह के रिश्ते बना देते हैं ।
ऐसा नहीं की दुनिया देखी नहीं हमने अभी भी
पर यह दुनियादारी ही हम नहीं निभा पाते हैं ।
मैं क्या हूं यह मैं आज तक नहीं जान पाई
पर दूसरे मेरे बारे में ज्यादा जान जाते हैं ।
हैरान हूं मैं भी यहां के रस्मो रिवाजों से
हर पल इन इंसानों के चेहरे बदलते नजर आते हैं ।