ग़ज़ल
अपने ही हाल की मुझे कोई ख़बर नहीं
लगता है के इस रात की कोई सहर नहीं
देता है सिला बारहाँ सब्र और इंतज़ार
ख़याल तो दुरुस्त है, पर पुरअसर नहीं
क़िस्मत में है अगर तो आ जाएगा लौट कर
वो है यक़ीं तेरा, मेरा नुक़्तए-नज़र नहीं
सदियों की तरह लगती है आँखों में जब कटे
शबे ग़म हुआ करती है कभी मुख़्तसर नहीं
पाकर भी उसे रह गया अहसास सफ़र का
लगता नहीं मक़ाम है ये, रहगुज़र नहीं
बढ़ता ही गया मर्ज़ दवा जब भी की उसने
वो ख़ुद वजह-ए-मर्ज़ था, कोई चाराग़र नहीं