अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ.......
सपनों में आ जाती हैं क्यूँ, अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ,
दिल में हूक उठाती हैं क्यूँ, अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ!
साड़ी का आँचल था तेरा, कमर में खोंसा रहता था,
हाथ हमेशा गीले, कनपटियों पे पसीना बहता था,
आटे में इक सनी हथेली, माथे से लग जाती थी,
कत्थई रंग की बिंदी वो, माथे पर धूप उगाती थी,
जूड़ा तेरा इक उलझा-सा, रबर बैंड की पड़ी बेड़ियाँ,
दिल में हूक उठाती हैं क्यूँ, अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ!
जब जो खाने को दिल करता, टेबल पर आ जाता था,
हमें ख़बर भी कब होती थी, कैसे ये हो पाता था,
शेर, बाघ और भालू के, थाली में कौर सजाती थीं,
दूध की मूँछें, हाथ की मिट्टी, आँचल से पुँछ जातीं थीं,
चाचा-चाची मामा-मामी, सब रिश्तों की जोड़े कड़ियाँ,
दिल में हूक उठाती हैं क्यूँ, अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ!
निमकी, गुझिया, मठरी, बर्फ़ी; सोंठ के लड्डू, शक्करपारे,
मिर्च अचारी, पापड़ सारे; छत पर सूखे सुबह सकारे,
सीधे उलटे फंदों वाले, फिरते थे हम स्वेटर डाले,
ये सब देखा, कभी न देखे, वो तेरे हाथों के छाले,
जब से तू बिछड़ी ना देखीं, मूँग, उड़द, चावल की बड़ियाँ
दिल में हूक उठाती हैं क्यूँ, अम्मा तेरी फटी एड़ियाँ!