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Chapter 3 :

कच्चे आम

मंजू तब सातवीं कक्षा में थी। गर्मी पूरे जोरों पर थी और मंजू के पसंदीदा फल आम भी। आम उसे इतना पसंद था कि वो उसे किसी भी रूप में खा सकती थी ―कच्चा हो, पका हो, जेली हो या अचार। बस आम होना चाहिए। 'अरे सुनीता, लंच के समय आम के बगीचे में चलते हैं? चलोगी?' मंजू ने फुसफुसा कर कहा। 'पिछली बार मिली डांट भूल गई क्या?' 'और क्या तुझे आम का स्वाद याद है?' मंजू ने कहा तो उसकी आँखें चमक उठी। 'और देखो, आज तो मैं काला नमक भी लाई हूँ। इससे स्वाद और बढ़ जाएगा।' लेकिन मम्मी को पता चल गया तो वो मुझे डांटेगी,' सुनीता ने कहा। 'अभी हम आमों के बारे में सोचते हैं, हम डांट के बारे में बाद में सोचेंगे।' और इस सोचने समझने के दरम्यान टीचर ने गणित का वो सवाल कैसे हल किया, ये ना तो मंजू को समझ आया, ना ही सुनीता को। लंच पीरियड की घंटी बजनी अभी बंद भी नहीं हुई थी और सारी लड़कियां क्लास से बाहर थीं। हो भी क्यों ना, लंच ब्रेक स्कूल के दिन का सबसे रोमांचक समय होता था सबके लिए। एक दूसरे के टिफ़िन से खाना, जल्दी खाना खत्म करके फिर ढ़ेरों बातें करना। पर आज सुनीता और मंजू खाना छोड़ के गेट के बाहर की तरफ जा रही थीं। नहीं, जा नहीं रही थी बल्कि भाग रही थीं। 'सुनीता, रुको!' मंजू ने आवाज़ लगाई। सुनीता ऐसी गति से दौड़ रही थी जिससे ओलंपिक धावकों को ईर्ष्या होगी। वो वहाँ हांफती हुई पहुंची। सामने बगीचा देख कर उसके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। हर पेड़ पे आम। कहीं कच्चे आमों से लदा हुआ पेड़ तो कहीं अधपके आमों की खुशबू। मंजू तो मानों ज़न्नत में थी। वह कमर पर हाथ रख कर पेड़ों का मुआयना कर रही थी। पेड़ की छांव में जून की बेहाल कर देने वाली गर्मी से थोड़ी राहत थी। 'उस पेड़ को देखो, आमों से लदा है। चलो चलते हैं,' मंजू ने बायीं तरफ खड़े एक विशाल पेड़ की ओर अंगुली दिखाकर कहा, और वो दोनों उस तरफ़ बढ़ने लगीं। 'लेकिन शाखाएं कितनी ऊपर है, हमें पेड़ पर चढ़ना होगा।' सुनीता ने ऊपर देखते हुए अपनी चिंता व्यक्त की। 'मैं तो नहीं चढ़ूंगी।' 'तुम मत चढ़ना।' कहकर मंजू पेड़ पर यूं चढ़ने लगी मानो इस काम में माहिर हो। वैसे थी भी, कुछ गांव में सीखा और कुछ अपने भाइयों को देख कर। वह पहली टहनी पर पहुंची और नीचे खड़ी सुनीता को देखा। 'आम इकट्ठा तो कर सकती हो?' मंजू ने तंज किया और आम नीचे फेंकने लगी। सुनीता उन्हें इकट्ठा करने में जुट गयी। ज़्यादा से ज़्यादा पंद्रह मिनट हुए होंगे, और इससे पहले कि उन्हें कोई देख पाता, वो बागीचे से बाहर निकल ही रहीं थी कि पीछे से एक आवाज़ आयी। 'ऐ, रुको तुम लोग!' वो दोनों बिलकुल फाटक के पास ही थी। 'चल भाग जाते हैं,' सुनीता ने मंजू का हाथ पकड़ते हुए कहा। मंजू ने देखा बुड्ढा माली उनके पीछे आ रहा था। वह रुक गयी। माली के उनके पास पहुंचते ही उसने अपनी पानी की बोतल उसके आगे कर दी। 'चचा, लो पानी पी लो।' माली ने पानी पिया, उसकी सांस में सांस आयी। 'तुम दोनों फिर यहाँ? इस बार ऐसे नहीं जाने दूंगा। पता हैं न ये चोरी हैं?' 'नहीं चचा, हमने चोरी नहीं की हैं। मैंने पेड़ से पूछा था। और पता हैं मैंने एक दिन पेड़ों में पानी भी दिया था।' 'लेकिन यह पेड़ तुम्हारे नहीं हैं ना।' 'अच्छा तो किसके हैं?' 'जो इस बाग़ का मालिक हैं।' 'वह यहाँ होता तो हम उससे पूछ लेते न।' सुनीता ने झट से कहा और मंजू की तरफ देखा। 'अरे चचा, तुम यह सब छोड़ो। खाना खाया तुमने? मम्मी में आज आलू मटर और पराठा दिया है। तुम खाओगे?' माली ने कुछ नहीं कहा। 'अरे खाओ न चचा।' 'अच्छा, सुनो इस बार आम ले जाओ,' चाचा ने खाते हुए कहा। ऐसा लग रहा था जैसे तेज़ भूख लगी हो उसे। 'सच, चचा!' 'हाँ,' माली ने उसका डब्बा वापस देते हुए कहा। 'थैंक यू।' कह के दोनों वहां से खुशी खुशी भागे। 'कितने हैं?' मंजू ने पूछा। 'पूरे दस!' सुनीता ने मुस्कुराते हुए बैग से आम निकालना शुरू किया। उन्होंने अपनी कक्षा की आखिरी बेंच पर कब्जा कर लिया और आमों को खाने लगे। थोड़े से नमक के साथ कच्चे आम का स्वाद अद्वितीय था। 'आज एक अच्छा दिन था,' छुट्टी के बाद स्कूल से बाहर निकलते वक्त सुनीता ने कहा। 'बस मज़ा ही आ गया।' मंजू को हालांकि अब दिन इतना अच्छा नहीं लग रहा था। उसके पेट में ऐंठन होने लगी थी। जब तक वह घर पहुंची, उसे काफी दर्द हो रहा था। 'मां…' 'हाँ, क्या हुआ?' 'माँ!' मंजू ने कराहते हुए अपनी माँ को फिर से आवाज़ लगाई। 'अरे, क्या हो गया?' उसकी माँ दौड़ती हुई आई। 'मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है।' मंजू चिल्लाई। 'खेलने के चक्कर में भूखी तो नहीं रह गयी दिन भर?' माँ ने मंजू की पीठ सहलाते हुए कहा। 'टिफ़िन पूरा खतम किया था?' 'हां।' 'पानी पिया था?' 'हाँ, माँ, पिया था। प्लीज़ कुछ करो, मुझे बहुत दर्द हो रहा है।' मंजू अपने पेट को जोर से दबाए बैठी थी। माँ हींग और अजवाइन का लेप बना लायी और उसे मंजू के पेट पर लगाया। फिर उसे काढ़ा बना कर पिलाया। घरेलू उपचार ने असर दिखाया और मंजू को थोड़ी राहत मिली। माँ सिरहने आकर बैठी तो मंजू ने उनकी गोद में सिर रख दिया। माँ उसके सिर को सहलाने लगी। 'कुछ आराम मिला?' माँ ने पूछा। 'हमम...' 'भूख लगी है?' 'हमम...' 'खिचड़ी खाओगी?' 'हमम...' 'आज फिर से आम के बागीचे में गयी थी?' 'आपको कैसे पता?' मंजू ने अचकचा कर मां को देखा। 'मेरा मतलब है नहीं मां, नहीं गयी थी,' मंजू ने बात सँभालते हुए कहा। 'कितने खाए?' माँ ने फिर पूछा। 'अ...लगभग छः।' माँ से सच छुपाना आसान नहीं था। उसने सब बता दिया। 'कोई आश्चर्य नहीं कि पेट में दर्द था,' माँ ने कहा। 'कभी भी एक या दो कच्चे आम से ज्यादा नहीं खाना चाहिए, और दूसरी सबसे अहम बात कि कभी भी चोरी करके नहीं खाना चाहिए।' 'लेकिन हम चोरी नहीं कर रहे थे, मम्मी। पूछने वाला कोई नहीं था। और हमने पेड़ से कहा कि हम कुछ आम ले रहे हैं। और फिर माली भैया ने भी कहा कि आम ले सकते हो। दो तीन...' 'दो- तीन? और तूने कितने खायें?' 'छः।' माँ ने अपनी आँखों में झूठी नाराज़गी भर कर मंजू को देखा। 'अच्छा, फिर नहीं करूंगी। पक्का।' मंजू ने मनुहार की। 'अच्छा एक बात बताओ।' मंजू ने ऐसे कहा जैसे कोई गंभीर बात हो। 'हाँ...' 'तुम्हारे लिए भी ले आऊं अगली बार? कितने आम खाओगी तुम?' 'क्या? तू नहीं सुधरेगी!' माँ ने गुस्सा दिखाते हुए कहा। अरे! मैं तो मजाक कर रही हूं, माँ।'