किस चिराग़ में मेरी ज़िंदगी जला रहे हो तुम, मैं उस चिराग़ को अब बुझाना चाहता हूँ। जिस्म-ए-राख को ख़ुद में समेटना चाहता हूँ, उस अजियत भरी माज़ी को भूलना चाहता हूँ। उस ज़िंदगी के लिए जी भर कर रोना चाहता हूँ, अंधेरी शाम में जुगनू-ए-रोशनी लाना चाहता हूँ। गुलशन में कुछ फूल लगाना चाहता हूँ, सोए हुए परिंदे को अब जगाना चाहता हूँ। घर की दीवार को तनहाई से निकलना चाहता हूँ, कुछ ख़ुशबू अपने गलियों में बिखेरना चाहता हूँ। रूठे हुए तक़दीर-ए-ज़िंदगी को मनाना चाहता हूँ, टूटे हुए आशियाने को फिर से बनाना चाहता हूँ। इस ज़िंदगी को ‘अंजर’ फिर से जीना चाहता हूँ, कुछ रंग ए दुनिया का लुत्फ़ उठाना चाहता हूँ।