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Chapter 2 :

2

सुबह काफी तड़के सत्या उठ गया. उसने साईकिल निकाली और धीरे-धीरे साईकिल चलाता हुआ सड़क के दोनों तरफ नज़र दौड़ाने लगा, इस उम्मीद में कि शायद उसका चेन और ताला कहीं पड़ा मिल जाए. सामने भीड़ देखकर वह रुका. फिर जिज्ञासावश पास जाकर देखा तो सन्न रह गया. सड़क के किनारे बोल्डर्स पर गोपी की लाश पड़ी थी. चेहरे पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं. सर के पास खून बिखर कर सूख गया था. एक पच्चीस-छब्बीस बरस की स्त्री पास बैठी जोर-जोर से रो रही थी. कुछ औरतें उसको संभाल रही थीं. कई लोग पास खड़े अफसोस ज़ाहिर कर रहे थे. सत्या को काटो तो खून नहीं. वह डर कर आगे बढ़ गया. गल्ले की एक दुकान – रतन स्टोर, मारडन बस्ती – का साईनबोर्ड देखकर वह रुका. स्टोर के आगे कुछ लोग खड़े आपस में बातें कर रहे थे. गरीब मज़दूर से दिखने वाले ये लोग बीड़ी पी रहे थे. उनके चेहरों पर से रात की शराब की खुमारी उतरी नहीं थी. सत्या दुकान पर आया, लेकिन उसके कान लोगों की बातचीत पर ही लगे थे. चौंतिस-पैंतिस बरस का थोड़ा समझदार सा दिखने वाला घनश्याम कह रहा था, “मेरे सामने ही भट्टी पर से निकला था. बहुत पिए हुए था.” रतन सेठ ने उसकी बात में अपनी बात जोड़ी, “हम देखे थे उसको. रात करीब ग्यारह बजे दुकान बढ़ाने उठे तो सामने से लड़खड़ाता हुआ जा रहा था.” “इतनी रात में बस्ती के बाहर कहाँ जा रहा था?” रामबाबू ने सवाल किया. “अरे पीने के बाद तुमलोगों को होश भी रहता है कि कहाँ जा रहे हो?” रतन सेठ ने मुँह बनाया. चँदू चहका,“हम तो जितना भी पी लें घर का रास्ता कभी नहीं भूलते.” बाकी दोनों उससे बारी-बारी हाथ मिलाकर जोर से हँसे. रतन सेठ अब सत्या की तरफ मुख़ातिब हुआ, “हाँ आपको क्या चाहिए?” सत्या हड़बड़ा गया, “बस यूँ ही.....यहाँ क्या हो गया है?” रतन सेठ ने बताया, “बस्ती का लड़का था गोपी. कल रात पत्थरों पर गिर कर मर गया.” सत्या ने एक सहज सा सवाल किया, “कैसे गिर गया?” “पूरी चढ़ाए हुए था. ठीक से चल भी नहीं पा रहा था,” रतन सेठ ने जवाब दिया, “आप इतना परेशान न हों. यहाँ का यही हाल है. गिर कर नहीं मरता, तो दारू पी कर मर जाता.” फिर वह होठों ही होठों में बड़बड़ाया, “साले सब-के-सब पियक्कड़ हैं. बेहिसाब पीते हैं और मर जाते हैं, मेरा हिसाब चुकाए बिना. ” दुकान की बगल की गली से कुछ आदमीयों और एक ठेले के साथ एक सिपाही निकला. सत्या सहम गया. सिपाही ने वहाँ खड़े लोगों को डाँट लगाई, “तुमलोग तमाशा क्या देख रहे हो? चलो सब मिलकर लाश को ठेला पर चढ़ाओ. पोस्माटम के लिए ले जाना है.” तीनों बस्ती वाले सिपाही के पीछे चले पड़े. सत्या के मुँह से अनायास निकला, “इसका पोस्ट-मॉर्टम भी होगा?” दुकान पर छः-सात बरस का एक बच्चा आया. रतन सेठ ने देखते ही उसे आवाज लगाई, “ अरे रोहन, तू यहाँ क्या कर रहा है?” रोहन ने मुट्टी में पकड़ा पचास पैसे का सिक्का बढ़ाया और बोला, “बिस्कुट.” रतन सेठ ने उसे बिस्किट की एक छोटी पैकेट थमाई और बोला, “आज तुझसे पैसे नहीं लेंगे. जा ले जा, खा ले.....इसी बेचारे का बाप मरा है.” उसने सत्या को बताया. लेकिन सत्या का ध्यान कहीं और था. वह एक टक बच्चे को देख रहा था. उसने गले में हार की तरह उसकी साईकिल की चेन और ताला लटका रखा था. रोहन ने सिक्का काउंटर पर छोड़कर बिस्किट का पैकेट उठा लिया. “ये चेन और ताला तुमको कहाँ मिला?” सत्या का ध्यान अभी भी रोहन पर ही था. बिना कोई जवाब दिए रोहन पैकेट से बिस्किट निकाल कर खाने लगा. सत्या से नहीं रहा गया. उसने पूछ ही लिया, “ऐ सुन, ये चेन और ताला बेचेगा? सौ रुपये दूँगा.” रोहन ने दूसरे हाथ से गले में लटके चेन और ताले को कस कर पकड़ लिया. “अरे बेच दे बेटा. इसका तो कोई पचास भी नहीं देगा, तुमको तो सौ मिल रहा है.” रतन सेठ ने रोहन को समझाने की कोशिश की. रोहन ने जोर से प्रतिरोध किया, “नहीं, ये मेरा है.” तभी एक आठ-नौ साल की लड़की वहाँ आई. उसके गालों पर सूखे हुए आँसू की लकीरें थी. वह रोहन का हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाती हुई बोली, “तू यहाँ क्या कर रहा है? चल मेरे साथ.” सत्या ने झेंपते हुए रतन सेठ को देखा और बोला, “बाप मर गया है, सोचें इसी बहाने कुछ सहायता कर देते हैं.” रतन सेठ, “ठीक बोलें, बहुत गरीब हैं, अभी बुलाते हैं .....खुशी, अरे ओ खुशी बेटी, इधर आ जरा ... अरे सुन तो.....आ ना.” खुशी और रोहन के पास आने पर वह आगे बोला, “देख, ये साहब सौ रुपये दे रहे हैं, इस चेन और ताले के लिए.” खुशी ने चौंक कर रोहन के गले में पड़ा चेन और ताला देखा, “अरे ये कहाँ से मिला तुमको? पता नहीं किसका लेकर घूम रहा है. चल लौटा दे उसको.” कहती हुई वह रोहन का हाथ खींचती हुई उसे ले जाने लगी. रतन सेठ ने आखिरी कोशिश की, “कोई बात नहीं बेटा, ये सौ रुपये तो ले जा” “नहीं-नहीं पैसा नहीं चाहिए,” कहती हुई खुशी भाई को लेकर दुकान से चली गई. रतन सेठ ने हाथ बढ़ाकर कहा, “लाइये हम उसकी माँ को बाद में भिजवा देंगे.” “हम बाद में आते हैं. खुद ही मिलकर दे देंगे,” कहकर सत्या दुकान से बाहर निकल आया. बाहर आकर उसने देखा कि लोगों ने लाश को ठेले पर लाद दिया है. पुलिस के साथ कई लोग ठेला लेकर चल पड़े. सत्या उदास नज़रों से कुछ दूर तक उनको जाते हुए देखता रहा. फिर साईकिल पर चढ़कर सड़क पर आगे बढ़ गया. सत्या ने संजय के घर के आगे हड़बड़ाते हुए साईकिल रोकी और साईकिल से उतरते-उतरते उसने आवाज़ लगाई. संजय शौल लपेटे पाएजामे में बाहर निकला. संजय, “अरे, इतनी सुबह-सुबह? बाहर क्यों खड़ा है. अंदर आ ना.” सत्या ने साईकिल स्टैंड पर खड़ी की और दौड़कर संजय की बाँह पकड़ कर उसे लगभग खींचता हुआ अपने साथ सड़क पर ले आया, “अरे सुन तो. बहुत ज़रूरी बात है.” सत्या की हालत देखकर संजय भी थोड़ा चिंतित हो गया, “क्या बात है? कहीं जाना है? कपड़े तो बदलने दे.” “अरे आ ना. बहुत मुसीबत में है,” सत्या ने जैसे गुहार लगाई. संजय और सत्या साथ-साथ चलने लगे. मोड़ पर पहुँचकर दोनों पुलिया पर बैठ गए. दोनों हाथों से सर को पकड़ कर पुलिया पर चिंतित बैठे सत्या को संजय ने सांत्वना देने की कोशिश की, “कुछ नहीं होगा. तू घबरा मत,” चिंतित तो संजय भी हो गया था. सत्या, “तू कैसे भी करके पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट पता कर.” संजय, “तू ज्यादा ही डर रहा है. क्या पता चलेगा पोस्टमॉर्टम में, कि तूने उसे मारा है?” “क्या पता, मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है. कहीं कोई देखा हो तो? फिर वह चेन और ताला उसके बेटे के पास है. डर के मारे मेरी तो हालत खराब है. तू कुछ कर संजय.” संजय कुछ देर सोच में पड़ गया. फिर बोला, “चलो उठो. कल की तारीख पर छुट्टी की दरख़्वास्त लिख कर हमको दे दो. हम साहब से मंजूर करवा लेंगे. तुम अभी के अभी घाटशिला अपने गाँव चले जाओ. इधर हम देखते हैं, पोस्ट-मॉर्टेम में क्या है.....और इतना डरने का क्या है? तुमने कोई जानकर तो उसे मारा नहीं. उल्टे उसी ने तुमपर चाकू से हमला किया था.” “अरे नहीं ना....वह तो केवल डरा रहा था. चाकू से हमको जब खरोंच लगी तो वह सॉरी भी बोला था. तभी तो उसको ज़ख्मी करके अपना साईकिल वापस पाने का विचार मेरे दिमाग में आया,” सत्या की हालत ऐसी थी कि अब रोया कि तब रोया, “उफ्फ, हम क्यों इतनी जोर से मार दिये कि वह मर गया?... सच संजय उसको जान से मारने का मेरा कोई इरादा नहीं था.” “जो हो गया सो हो गया. तुम जान-बूझ कर तो उसे नहीं मारे ना? अब सीधा बस पकड़ो और गाँव चले जाओ. हम देखते हैं इधर कैसी परिस्थिति बनती है. जैसा होगा तुमको खबर करेंगे. और हाँ, कल ऑफिस में फोन कर लेना,” कहकर संजय पुलिया पर से उठ गया. सत्या के शरीर में तो जैसे जान ही नहीं थी. उसे वहीं बैठा देखकर संजय ने उसकी पीठ थपथपाई, उसे दिलासा दिलाई और उसे अपने साथ उसकी साईकिल के पास ले आया. संजय, “मैं बोल रहा हूँ ना, कुछ नहीं होगा. तू बेकार ही चिंता कर रहा है.” “संजय, जरा यह भी पता करना इसमें कितने साल की सज़ा होगी,” सत्या ने बड़े कातर स्वर में कहा. संजय झुँझलाकर बोला, “तू पागल हो गया है.” कंधे पर एक छोटा सा बैग लटकाए सत्या मानगो पुल के पास ऑटो रिक्शा से उतरा. सड़क पार करते समय बेख्याली में वह एक तेज रफ्तार ट्रक के नीचे आते-आते बचा. ट्रक के ड्राईवर ने जोर से ब्रेक लगाई. ट्रक के टायर जोर से चीखे. सत्या सदमें में अपनी जगह पर जैसे जम गया. खलासी ने खिड़की से बाहर सर निकालकर एक भद्दी सी गाली दी. आस-पास गुज़रते लोग भी रुकर गालियाँ देने लगे, “अबे मरने का इरादा है क्या?” एक भला मानस सत्या का हाथ पकड़कर उसे सड़क के पार ले गया. ट्राफिक फिर सामान्य ढंग से चलने लगी. किंतु सत्या को सामान्य होने में काफी समय लगा. इस बीच “घाटशिला-घाटशिला” की आवाज़ लगाते दो बसों के खलासी सत्या के सपाट चेहरे पर कोई प्रतिक्रया न देखकर बस को आगे बढ़ा ले गए थे. काफी देर बाद सत्या ने पास आकर रुकी एक बस पर चढ़ गया. कुछ और लोग भी चढ़े. बस के आगे लिखा था टाट से राँची, सुपरफास्ट एक्सप्रेस. कंडक्टर से जब उसने घाटशिला की टिकट माँगी तब जाकर उसे अहसास हुआ कि वह ग़लत बस पर चढ़ गया है. हाईवे पर कंडक्टर ने उसे उतार दिया. उसके उतरने के बाद कंडक्टर ने जब उसका मज़ाक उड़ाने की कोशिश की तो एक यात्री ने उसे टोका, “ऐसे किसी का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए. बेचारा परेशान दिख रहा था. मैं इसको काफी देर से देख रहा था. पहले तो एक ट्रक के नीचे आते-आते बचा. फिर गलत बस में चढ़ गया. क्या पता गाँव में कोई अपना मर गया हो इसका और दुख के कारण इसका दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा हो.” बस के सारे लोग खामोश हो गए. कंडक्टर भी जाकर अपनी सीट पर बैठ गया. बस से उतरकर सत्या अपने ख्यालों में डूबा पारडीह चौक से पैदल ही डिमना चौक की तरफ चल पड़ा. वहीं से उसको घाटशिला की बस मिलने वाली थी. डिमना चौक पर पहुँचकर सत्या बस का इंतज़ार करने लगा. एक विक्षिप्त हाथ फैलाकर वहाँ खड़े लोगों से पैसे मांग रहा था. बढ़ी हुई दाढ़ी, उलझे बाल, शरीर पर मैली सी गंजी, कंधे पर तार-तार एक कंबल और मैली-कुचैली एक पोटली, पीछे से फटी घुटनों तक की पैंट और आगे से चेन खुली हुई. एक मक्खी उसके चेहरे पर भिनभिना रही थी. उसको पास देखते ही या तो लोग अपनी जगह बदल लेते थे या फिर कुछ पैसे उसकी हथेली पर रखकर उसे चलता कर देते थे. कुछ तो उसे डांटते और मारने की धमकी तक दे देते थे. लेकिन इस सब का उसपर कोई फर्क नहीं पड़ता था. सत्या के सामने आकर जब उसने हाथ फैलाया तो सत्या ने न ही उसको देखकर नाक भौं सिकोड़ी और न दुत्कारा ही. उसने कमीज़ की ऊपरी जेब में हाथ डाला और जो पहला नोट हाथ में आया उसको देकर सामने से आती बस पर चढ़ गया. कंडक्टर ने सीटी बजाई और दरवाजे को जोर से थपथपा कर सीटी बजाई और बस को आगे बढ़ा दिया. विक्षिप्त काफी देर तक मिली हुई नोट को उलट-पलट कर देखता रहा. सत्या ने शायद ध्यान नहीं दिया था. उसने हजार का नोट दे दिया था. अच्छी तरह नोट का मुआयना करने के बाद वह विक्षिप्त गंदे बदसूरत दाँत निपोर कर जोर से हँसा और नाचने लगा. लोगों ने उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी. विक्षिप्त खुशी से कुलाँचे मारता पास के होटल की ओर दौड़ा. माँ काली भोजनालय का मालिक दरवाजे पर ही अपनी कैश काउंटर के पीछे बैठा था. अंदर छोटे-छोटे टेबुलों के आगे बेंचों पर बैठे लोग जिलेबी-समोसा और चाय का आनंद ले रहे थे. विक्षिप्त को पास आता देख होटल का मालिक दूर से ही चिल्लाया, “कहाँ चला आ रहा है? रुक जा वहीं पर .... हाँ, वहीं बैठ ....चाय पिएगा?.......अरे गनेस, इसे एक सिंघाड़ा और चाय दे दे.” विक्षिप्त ने वहीं से अपना खाने का ऑर्डर दिया, “चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी,” और हज़ार का नोट निकाल कर होटल के मालिक को दिखाया. होटल के मालिक ने उसे इशारे से पास बुलाया. उसके हाथ से नोट लेकर उसे अच्छी तरह देखा. आसमान की तरफ उठाकर गौर से कुछ देखा और आश्वस्त होकर बोला, “गनेस, इसको चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी दे दे..... चल यहीं जमीन पर बैठ जा.” उसने नोट गल्ले में डालने की जगह अपनी जेब में सरकाई और अपनी दुकानदारी में व्यस्त हो गया. सामानों की पोटली में से अपना अलमुनियम का कटोरा निकालकर विक्षिप्त जमीन पर बैठकर खाने का इंतज़ार करने लगा. गनेस ने लाकर उसके कटोरे में जब एक समोसा डाला तो वह जोर से चिल्लाया, “चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी.” होटल के मालिक ने भी गनेस को डाँट लगाई, “अरे बोले थे ना, सुनाई नहीं दिया तेरे को. लाकर दे इसको चार सिंघाड़ा, चार जिलेबी, और बाद में चाय भी देना” गनेस मालिक के चेहरे को ऐसे देखने लगा जैसे समझने की कोशिश कर रहा हो कि कहीं मालिक ने मजाक में तो नहीं कहा है. मालिक से दुबारा घुड़की मिलने के बाद वह दौड कर समोसे और जिलेबी ले आया और विक्षिप्त को देखकर बुरा सा मुँह बनाने लगा. पाँच मिनट में विक्षिप्त सारा कुछ चट कर गया. होटल के मालिक ने उसे और दो समोसे और दो जिलेबी दिलाई. पहले उसने पानी पीने की इच्छा ज़ाहिर की. पानी पीकर वह फिर से खाने में जुट गया. कुल आठ समोसे और छः जिलेबियाँ खाने के बाद उसने दो चाय पी और अफर कर वहीं ज़मीन पर लेट गया. एक ग्राहक ने होटल के मालिक पर तंज भी कसा, “क्या बात है, आज पगले पर बहुत मेहरबान हो रहे हो?” “आज पंडित जी बोले थे कि किसी को भर पेट खिलाओगे तो व्यापार में फायदा होगा. इसीलिए,” उसने उसे समझाने की कोशिश की. ग्राहक हँसा, “लेकिन अभी तो गँवा रहे हो,” पैसे चुकाकर ग्राहक हँसता हुआ अपने रास्ते चला गया. होटल के मालिक नें एक बार मुड़कर विक्षिप्त को देखा और फिर अपने काम में ऐसे लग गया जैसे उसे बिल्कुल भूल गया हो. थोड़ी देर बाद विक्षिप्त ने करवट बदली. फिर उठकर बैठ गया. काफी देर तक बैठे रहने के बाद वह उठा और कैश काउंटर के पास आकर खड़ा हो गया. होटल के मालिक ने मुड़कर प्यार से कहा, “अब हो गया बाबा, आगे जाओ.” विक्षिप्त ने दाँत निपोरे, “हज़ार का नोट. पैसा.” “चलो-चलो अब जाओ भी. धंधा का समय खराब मत करो,” होटल के मालिक ने उसे टरकाने की कोशिश की. विक्षिप्त ने परेशान होकर इस बार जोर से कहा, “हज़ार का नोट. पैसा दो.” होटल मालिक, “भागता है या लगाएँ दो डंडे?” विक्षिप्त हतप्रभ होकर इधर-उधर देखने लगा. फिर गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में उसने दोहराया, “हज़ार का लाल-लाल नोट. पैसा दो न.” होटल मालिक आगबबूला हो गया और उसने अपने दो लड़कों को उसे वहाँ से खदेड़ने के लिए कहा. दोनों लड़के काम छोड़कर डंडे लेकर दौड़े. विक्षिप्त सड़क की दूसरी तरफ भागा और उसने हाथ में ईंट का एक टुकड़ा उठा लिया, “मार देंगे, मार देंगे.” लड़के हँसते हुए वापस चले गए. उसने पास खड़े तमाशाईयों से गुहार लगाई, “मेरा पैसा...मेरा पैसा. दो न मेरा पैसा.” एक ग्राहक ने पूछ लिया, “क्या बोल रहा है ये?” “क्या मालूम क्या बोल रहा है. पागल है साला. अभी-अभी दया करके दस-दस सिंघाड़ा-जिलेबी खिलाएँ. पेट भरते ही न जाने क्या फितुर सवार हो गया. पैसा माँगने लगा, जैसे हम कोई कर्जा खाकर बैठे हैं इसका.” होटल मालिक ने अपनी दयानतदारी का बखान किया और उसकी बेवजह की माँग से त्रस्त नज़र आया. तभी ईंट का एक टुकड़ा उसकी कैश काउंटर पर आकर लगा. कई लोगों के मुँह से आवाज निकल गई. विक्षिप्त गुस्से में भरा आस-पास बिखरे पत्थरों को बटोरने में लगा था. इस बार होटल मालिक की आज्ञा के बिना ही दुकान के दोनो लड़के डंडे लेकर दौड़े और उसे दूर तक खदेड़ आए. एक ने तो उसे दो डंडे लगा भी दिए. होटल मालिक भी दुकान के बाहर आकर उसे दूर से ही गंदी-गंदी गालियाँ बकने लगा. एक ग्राहक ने उसे समझाया, “अब जाने भी दो बॉस, आखिर है तो पागल ही न.” “पागल है तो क्या पत्थर चलाएगा? किसी को अगर लग जाता तो? मेरा कितना नुकसान कर दिया...इसको इस इलाके से ही भगाना होगा. साला आफत कर रखा है.” होटल मालिक बड़बड़ाता हुआ दुकान पर वापस आया और कैश काउंटर की हुई क्षति का मुआयना करने लगा. विक्षिप्त चौराहे पर खड़ा लोगों से रो-रोकर गुहार कर रहा था, “मेरा पैसा...मेरा पैसा.” किसी ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया. वहाँ गाड़ियों की आमद-रफ्त का कोलाहल और लोगों की आवा-जाही से भगदड़ का सा माहौल था. किसी को भी उसकी बात सुनने की फुर्सत नहीं थी. अंत में विक्षिप्त ने रोना बंद किया और कोहनी पर लगी चोट को सहलाने लगा. फिर वह वहाँ से चल पड़ा. किसी को उसे उस इलाके से खदेड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. वह जो गया तो फिर कभी वहाँ नज़र नहीं आया. केवल पैसे से किसी का भला कभी हुआ है, जो इस विक्षिप्त का होता? इस घटना से बिल्कुल अनजान सत्या बस में चला जा रहा था. सारी सीटें भरी हुई थीं. बस कंडक्टर, जो उसे पहले से जानता था, ने उसे एक सीट के पास खड़ा कर दिया था और कहा था कि गालुडीह में वह सीट खाली हो जाएगी तो वह बैठ जाए. गालुडीह में सीट खाली भी हुई. लेकिन सत्या का ध्यान कहीं और था. पास में खड़े दूसरे यात्री ने जब देखा कि सत्या ने बैठने की पहल नहीं की तो वह जाकर सीट पर बैठ गया. एक अन्य यात्री यह सब देख रहा था. उसने सत्या की कोहनी को छूकर उसका ध्यान अपनी ओर खींचा और कहा, “मैं घाटशिला से पहले ही उतर जाऊँगा. आप मेरी सीट पर बैठ जाईयेगा.” सत्या ने कोई जवाब नहीं दिया. एक जगह जब बस रुकी तो वह यात्री सत्या को अपनी सीट पर बैठ जाने के लिए कहकर बस से उतर गया. कंडक्टर ने सत्या को आवाज़ लगाई कि उसका पड़ाव आ गया है. सत्या भी बस से उतर गया. बस आगे बढ़ गई. उसके साथ उतरे सहयात्रि ने सत्या से जानना चाहा, “ भाई साहब, आप यहीं के रहने वाले हैं? जरा बता सकेंगे यहाँ के मध्य विद्यालय के प्रधानाचार्य का घर कहाँ है? दरअसल यहाँ के विद्यालय में मेरी नौकरी लगी है. कल ही योगदान करना है,” एक ही सांस में वह सब कुछ कह गया. लेकिन सत्या ने ज्यादा कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और गाँव के अंदर जाती पक्की सड़क की तरफ इशारा करके बताया कि सामने ही विद्यालय पड़ेगा और बगल में ही प्रधानाचार्य का आवास. जबतक सहयात्री उसे धन्यवाद कहता वह कच्ची सड़क पर आगे बढ़ गया था. उसका गाँव अभी काफी दूर था. चलते-चलते वह रेल की पटरी के पास जा पहुँचा. पटरी पार करने के बाद कोई आधे कोस पर उसका गाँव था. लेकिन उसके कदम वहीं रुक गए. वह काफी देर तक वहीं खड़ा रहा, जैसे किसी रेलगाड़ी के आने का इंतज़ार कर रहा हो. तभी पीछे से उसके बचपन का मित्र, भोला अपनी साईकिल पर वहाँ पहुँचा. सत्या को देखकर वह खुश हो गया. उसने जोर से आवाज़ लगाई, “अरे सत्या, तू आया है? छोटी सी तो बात थी. क्यों आ गया? तू तो माँ के लिए एकदम पागल है.” माँ का नाम सुनकर सत्या की तंद्रा भंग हुई. वह अपने आस-पास की स्थिति को समझने की कोशिश करने लगा. फिर बोला, “माँ? माँ को क्या हो गया?” भोला, “बस जरा सा मोच है. अरे हमलोग हैं न गाँव में. हमपर कुछ तो भरोसा कर.” “कब लगी? कैसे लगी? किस हाथ में लगी? हड्डी तो नहीं टूटी?” एक साथ इतने सवाल सुनकर भोला भी हड़बड़ा गया, “कुछ नहीं हुआ है. बस मामूली सा मोच है. हम डॉक्टर को दिखाए थे. एक्स-रे भी हुआ. तू इतना परेशान मत हो. दो-चार दिन में ठीक हो जाएगा.” “तू पहले जल्दी से मुझे घर पहुँचा,” कहकर सत्या उचककर साईकिल की पिछली कैरियर पर बैठ गया. भोला उसे लेकर चल पड़ा. घर पहुँचने से पहले ही सत्या कूद कर उतरा और घर की ओर दौड़ा. भोला की साईकिल डगमगा गई. “माँ-माँ” चिल्लाता हुआ वह घर के अंदर आया. माँ आंगन में गोबर का लेप लगा रही थी. बेटे को देखकर जबतक वह कोई प्रतिक्रिया देती सत्या उसके हाथ को पकड़ कर गीली जमीन पर ही बैठ गया और अश्रुपूर्ण नेत्रों से हाथ का मुआयना करने लगा, “कहाँ चोट लगी माँ? कहाँ चोट लगी है? ज्यादा तो नहीं लगी न माँ?” “अरे इसमें नहीं, इस हाथ में चोट लगी थी. और छी-छी, ये कहाँ बैठ गया. सारा कपड़ा गंदा कर लिया. चल उठ जा जमीन पर से, चल उठ भी,” माँ की बातों को अनसुना करके वह दूसरे हाथ को सहलाने लगा. माँ ने हाथ झटककर कहा, “पागलामी कैनो कॉरछो तुमी (पागलपन क्यों कर रहे हो तुम)? कुछ तो नहीं हुआ है हमको. देखो ठीक है मेरा हाथ.” “ना-ना, सत्ती बॉलो. कि कॉरे लागलो (नहीं-नहीं सच बताओ. कैसे चोट लगी)?” सत्या जिद करने लगा. भोला ने बताया कि पिछले रविवार को बछडें को बाँधते समय अचानक बछड़ा उछला तो रस्सी हाथ में कस गई. बस यही हुआ था. लेकिन सत्या ने आश्वस्त होने की बजाय अब नया राग आलापना शुरू किया, “सब मेरे कारण हुआ. मैंने माँ की बीमारी का झूठा बहाना बनाकर छुट्टी ली, इसीलिए तुमको चोट लगी. सब मेरा दोष है माँ, सब मेरा दोष है. ये हम क्या कर दिए भगवान. ये हमसे क्या हो गया. माँ, हम तुमको दुख नहीं पहुँचाना चाहते थे. ये क्या कर दिए हम...” सत्या अब फूट-फूट कर रोने लगा था. माँ और भोला कोशिश करके भी सत्या को संभाल नहीं पा रहे थे और उसके इस अजीबो-गरीब व्यवहार से हैरान और परेशान थे. वे नहीं जानते थे कि दरअसल यह गोपी की हत्या का दुख था, जो सत्या की आँखों से बहा जा रहा था. शायद इस क्रंदन के बाद सत्या का जी कुछ हल्का हो जाए और वह सामान्य हो सके.