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Chapter 1 :

1

आरंभ 1 जमशेदपुर शहर नवंबर का महीना. अच्छी खासी ठंड पड़ने लगी थी. रात काफी हो चुकी थी. सुनसान सड़क पर बिजली के खंभों के नीचे बल्ब की रौशनी के खामोश दायरे पड़े थे. सड़क के दोनों तरफ कतारों में छोटे-छोटे कंपनी के क्वार्टर, एक दूसरे से ऐसे सटे-सिमटे थे मानो ठंड में आपस की गर्मी साझा कर रहे हों. इक्का-दुक्का घरों के ही रौशनदोनों-खिड़कियों की झीरीयों से रौशनी की झलक मिल रही थी. करीब-करीब सारा मुहल्ला सोया पड़ा था. सामान्य दिनों में विचरने वाले आवारा कुत्ते कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. शायद सबने कोई-न-कोई गर्म कोना ढूँढ लिया था. संजय के घर पर अभी भी रौशनी की झलक दीख रही थी. बाहर गेट से लगकर एक साईकिल खड़ी थी, एक चौकीदार सीटी बजाता और जमीन पर लाठी पटकता हुआ उधर आ निकला. साईकिल के पास आकर उसने लोहे की गेट को डंडे से ठकठकाया और साईकिल का मुआयना करने लगा. साईकिल गेट के खंभे से चेन और ताले से बँधी थी. आवाज़ सुनकर संजय और सत्या बाहर निकले. उनके पीछे संजय की पत्नी गीता भी बरामदे में निकल आई. “शलाम शाब, साईकिल अंदर कर लेते न शाब”, नेपाली चौकिदार नें कहा. संजय बोला, “कोई बात नहीं बहादुर, मेरे मेहमान की साईकिल है. अभी चले जाएँगे अपने घर.” “शलाम शाब”, बोलकर बहादुर आगे बढ़ गया. सत्या ने घड़ी पर नज़र डाली और बड़बड़ाया, “ बाप रे, ग्यारह बज गए. बातों में पता ही नहीं चला. अब चलना चाहिए.” सत्या ने जेब से चाभी निकाली और गेट से बंधी साईकिल का लॉक खोलकर चेन साईकिल की सीट के नीचे लपेटी, ताला बंद किया और साईकिल की कैरियर पर दबाते हुए बोला, “ थैंक यू बोउदी, मांसो खूब भालो बना था. मज़ा आ गया. बाई संजय, बाई बोउदी.” संजय और सत्या ने एक दूसरे को हाथ हिलाया. सत्या साईकिल पर सवार होकर आगे बढा और मोड़ पर मुड़कर आँखों से ओझल हो गया. दरवाज़े पर खड़ी गीता घर के अंदर की ओर मुड़ गई, “चॉलो, भितॉरे एशे जाओ. बाईरे ठांडा बेढ़े गैछे. केवाड़ टा लागिए दिबे.” (चलो अंदर आ जाओ. बाहर ठंढ बढ़ गई है. दरवाजा बंद कर देना.) संजय ने खखार कर अपना गला साफ किया और दोनों हाथों को मलता हुआ दरवाज़े की तरफ बढ़ा. रतन सेठ की दुकान के खुले हुए दरवाजे का एक पल्ला कब्जे से ढीला होकर लटक गया था. बाहर घुप्प अंधेरा था. हाफ स्वेटर और सर पर उलेन टोपी पहना रतन सेठ दुकान के काउंटर पर झुककर अपनी हिसाब की कॉपी पर कुछ लिख रहा था. रतन सेठ को शायद ही किसी ने कभी बैठे देखा था. सामानों से अंटी पड़ी उसकी दुकान में किसी तरह काउंटर के पीछे लकड़ी की एक छोटी सी स्टूल के लिए जगह बनाई गई थी, जिसपर वह ज्यादा समय बैठने की बजाए अपना एक पैर टिका कर खड़ा रहता था. अनाज, मसाले, तेल, साबुन, चेहरे की क्रीम, बालों में लगाए जाने वाली तेल की शीशियाँ, अंडे, पावरोटी, बच्चों को ललचाने वाली मीठी गोलियाँ, सस्ती टॉफी, बिस्कुट, मोमबत्ती, बल्ब, बिजली के तार जैसी दुनियाभर की चीजें उसकी दुकान पर बिकती थीं. और सबसे ज्यादा बिकती थी तम्बाखू, बीड़ी, सिगरेट, लोकल मेड सस्ती मिक्स्चर और भुने बादामों की छोटी-छोटी पैकेटें. हिसाब की कॉपी बंद करके रतन सेठ ने सर उठाकर दरवाजे की तरफ देखा. खुले दरवाजे के बाहर अंधेरे में उसे गोपी की झलक मिली. सेठ उठकर दरवाजे तक आया और बाहर झाँक कर देखते हुए बड़बड़ाया, ”लो, अब यह भी दारू पीने लगा. एक तो ऐसे ही इसकी नौकरी चली गई है, ऊपर से दारू पीने की आदत. भगवान ही बचाए इस बस्ती के मर्दों को. शिव-शिव शिव-शिव.” रतन सेठ ने हाथ बढ़ाया और दरवाजे के दोनों पल्लों को बंद करने की कोशिश में लग गया. ढीले कब्जे वाला पल्ला बार-बार अटक जाता था और दरवाजा ठीक से बंद नहीं हो रहा था. किसी तरह दोनों पल्लों को आपस में जोड़कर उसने दरवाज़ा लगाया, छिटकनी लगाई और बगल में लगे भगवान की फोटो के आगे हाथ जोड़े. नीचे लटके कैलेंडर पर 1995 की नवंबर महीने का पेज था और तारीख दर्शाने वाले लाल रंग के प्लास्टिक के आयताकार टुकड़े के बीच 13 तारीख दिखाई दे रही थी. सुनसान सड़क पर गोपी झूमता हुआ चला जा रहा था. उसके हाथ में एक चाकू थी, जो लैंप-पोस्ट की रौशनी में कभी-कभी चमक जाती थी. तेजी से साईकिल चला रहे सत्या ने सामने सड़क पर अचानक आए गढे से बचने के लिए साईकिल काटी और ब्रेक मारते-मारते भी गोपी को पीछे से धक्का लग ही गया. गोपी गिरते-गिरते बचा. गुस्से में पलट कर उसने बाएँ हाथ से साईकिल की हैंडल पकड़ ली और दाएँ हाथ में पकड़े चाकू को हवा में लहराया. वह गुस्से में चिल्लाया, “कौन है बे. दिखाई नहीं देता है? अभी गिर जाते ना.” वह शराब के नशे में ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. गोपी के हाथ में चाकू देखकर सत्या सहम गया. सत्या, “गलती हो गई भाई. अंधेरे मे दिखाई नहीं दिया.” गोपी, “अंधेरा, कहाँ है अंधेरा? कंपनी ये जो बिजली का खंबा लगाया है, दिखता नहीं है? धक्का मार के बोलता है अंधेरा है. अभी हमको चोट लग जाता तो कौन देता ईलाज का खर्चा...... हैँ?” गोपी बात करते-करते धीरे-धीरे तैश में आता जा रहा था. सत्या ने हाथ जोड़ दिये. उसने सहायता की उम्मीद में इधर-उधर नज़रें दौड़ाई. दूर-दूर तक उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सत्या गिड़गिड़ा कर बोला, “भूल हो गई भाई, माफ कर दो. माफ कर दो भाई.” “चुप, चुप, चुप साला, हल्ला नहीं करेगा,” गोपी का गुस्सा अब पूरे ऊफान पर था, “चुप, नहीं तो पेल देगा चाकू तेरा पेट में......चल निकाल, निकाल जितना पैसा है पाकिट में.” सत्या पूरी तरह घबरा गया. इस ठंड में भी उसके माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं. कांपते हाथों से बड़ी मुश्किल से वह जेबें टटोलकर पचास का एक और दस-दस के दो नोट निकाल पाया. गोपी, “चल और निकाल, और निकाल... घड़ी, अंगूठी ...जो है सब निकाल. जल्दी, जल्दी..” “और कुछ भी नहीं है, गरीब आदमी हैं, गरीब आदमी हैं, माफ कर दो भाई,” सत्या को सूझ नहीं रहा था कि कैसे इस परिस्थिति से छुटकारा पाया जाए. गोपी झुँझला कर गुस्से में चीखा, “साला झूठ बोलता है? मार दें चाकू पेट में?” सत्या दहशत में जोर से गिड़गिड़ाया, “माँ कसम कुछ नहीं है. जाने दो. गरीब आदमी हैं, जाने दो....” “चुप साला.....गरीब आदमी......जा, साईकिल छोड़ के भाग जा. चल भाग,” गोपी ने झपट कर साईकिल छीन ली. इस छीना झपटी में सत्या की बाँह में चाकू से हल्की सी खरोंच लग गई. गोपी की नज़र भी उसकी खरोंच से रिसते खून की तरफ गई. वह जाते-जाते रुक गया. उसके चेहरे के भाव बदल गए थे, जैसे सत्या के जख़्म से वह खुद भी आहत हुआ हो. उसके मुँह से अनायास निकला, “सॉरी, देखा, लग गया ना? ..चल अब भाग. ....जाने बोला ना?” डर से सत्या का चेहरा पीला पड़ गया था. उसने बाँह की खरोंच का मुआयना किया और फिर वहीं खड़ा गोपी को देखने लगा. गोपी लड़खड़ाता हुआ पैदल साईकिल ढकेलकर ले जाने लगा. सत्या के चेहरे पर का रंग अब सामान्य होने लगा था, जैसे उसके अंदर हिम्मत का संचार होने लगा हो. अचानक वह दौड़ कर गोपी के पास पहुँचा और गिड़गिड़ाने लगा, “भाई, भाई, मेरी एक बात मान लो भाई. साईकिल तुम ले जाओ. बस ये चेन और ताला हमको खोल लेने दो. मेरे मकान-मालकिन का ताला है. गुम हो जाने पर बहुत बवाल करेगी. मेरा जीना मुहाल कर देगी. ये चेन और ताला खोल लेने दो भाई.” असमंजस में गोपी ने रुककर उसकी ओर देखा, उसके जख़्म को देखा और उसे इशारे से इजाज़त दे दी. सत्या ने ताला और चेन खोलकर वापस चेन के दोनों सिरों को मिलाकर ताला लॉक किया. गोपी आगे बढ़ गया. मौका देखकर सत्या ने पीछे से चेन के सिरे पर लटके ताले का भरपूर वार गोपी की कनपट्टी पर किया. एक जोरदार चीख के साथ गोपी लहराकर गिरा. साईकिल दूसरी तरफ गिरी. सत्या ने झटपट साईकिल उठाई और उसपर सवार होकर तेजी से भागा. रतन सेठ दुकान के ऊपरी कमरे में गमछे से चेहरा पोछ रहा था. दूर किसी के चीखने की आवाज़ से वह चौंक पड़ा. उठकर खिड़की खोली और बाहर झाँक कर अंधेरे में देखने की कोशिश करने लगा, “क्या हुआ? अरे कौन है उधर? ....अजी सुनती हो? बस अभी देख कर आते हैं,” रतन सेठ ने अपनी पत्नी को आवाज़ लगाई और दरवाजे की तरफ बढ़ा. लेकिन दरवाजे से उसकी पत्नी हाथ में खाने की थाली लिए अंदर आई. उसने थाली मेज पर रखते हुए सख्ती से कहा, “कहीं जाने का ज़रूरत नहीं है. चुप-चाप बैठकर खाना खाओ.” सुनसान सड़क पर सत्या साईकिल पर अंधाधुँध पैडल मारता चला जा रहा था. वह काफी दूर निकल आया था और उस शराबी के पीछा किए जाने की अब कोई संभावना नहीं थी. लेकिन सत्या अभी भी इतना डरा हुआ था कि एक बार भी पीछे मुड़कर देखने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी. उसे इस बात का भी अहसास नहीं था कि सड़क के किनारे रौशन लैंप-पोस्ट के नीचे से गुज़रते ही उसकी परछाईं उससे आगे भागने लगती थी और वह तेजी से साईकिल चलाता हुआ जैसे उसे पकड़ना चाहता था. लेकिन परछाईं धुँधली होकर गायब हो जाती थी और अगले लैंप-पोस्ट के नीचे पहुँचते ही वह रोशनी में नहा जाता था. यह सिलसिला तब तक चलता रहा जबतक वह अपने घर नहीं पहुँच गया. सत्या ने हाँफते हुए साईकिल बरामदे पर चढ़ाई और साईकिल को स्टैंड करके राहत की साँस ली. जेब से चाभी निकालकर साईकिल लॉक करने बढ़ा और फिर सोच में पड़ गया. वह बड़बड़ाया, “लगता है चेन और ताला वहीं कहीं गिर गया .....सुबह जल्दी जाने से शायद कहीं पड़ा मिल जाए. ..साहब को बोलकर पुलिस को भी खबर करनी होगी. आजकल शहर में छिनताई बहुत हो रही है ...लेकिन अच्छा सबक सिखाएँ उसको. बड़ा चला था साईकिल छीनने. अब जिंदगी में कभी छिनताई का ख्याल भी नहीं आएगा उसको.” घर का ताला खोलकर वह साईकिल को भी घर के अंदर ले गया और उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.