रगो में आहिस्ता आहिस्ता रवा होता है,
दर्द जब हद से गुज़रे तभी दवा होता है।
निभाता कौन है बंदिगी उम्र तलक को,
कभी जो पूछ लें हाल हमनवा होता है।
लिखी जाती नहीं ये दास्ताँ यकबयक ,
नशा है इश्क़ का, धीरे से जवा होता है।
सुकून ले लीजै जिस भी दर से मिले,
वही बायसे मुफ़ीद आबोहवा होता है।
नही हो सकती पूरी सबकी सारी मुरादें,
इसी कोशिश में तो बशर फ़ना होता है।
ज़बी को रगड़ लो कितना भी दरों पे,
मिलेगा वही बस मंज़ूर ए ख़ुदा होता है।