उसके मौन का विस्मय
आज तो वह बोली भी न बोली भी
उसके चेहरे की मस्ती
अनगिन भावों की बस्ती
उसने आंखें खोली भी न खोली भी
कह गयी ढेर सी बातें
पर वो बोली भी न बोली भी |
झरते झरने सी बही वह
मदमस्त किसी के सपनों में
आज तो डोली भी न डोली भी
लड़खड़ाई उसकी पदचाप
फिर चली वो अपने आप
अनकहे शब्दों के मेले में
मुझसे वो कुछ बोली भी न बोली भी |
शहर में जब से आयी वह
सीख गयी ताना बाना
नए नए परिधानों में लिपटी
गाँव सी भोली भी न भोली भी
अब तो रहस्य का झुरमुट
और कुछ घटनाएं छिटपुट
किंचित बोली भी न बोली भी ||