वह 1974 का साल था और उत्तर भारत की कड़ाके की सर्दी के मौसम के बाद फरवरी महीने के आखिरी दिनों में मौसम खुशनुमा बन जाता है। सुबह शाम को हल्की ठंड हो जाती थी और दिन में मखमली धूप फागुन मास में होली की मस्ती से सबको गुदगुदाती थी।लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों का हमारा दल कानपुर शहर में वहाँ के चमड़ा उद्योग और कपड़े के हस्तकला के व्यापार को समझने आया हुआ था।हम सब कानपुर के एक प्रसिद्ध ‘नव भारत होटल’ में बैठकर अपने प्रोजेक्ट की चर्चा के साथ-साथ वहाँ के स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद भी ले रहे थे। हम सभी युवक आधुनिक व्यापार प्रबंधन (मॉडर्न बिज़नस मैंनेजमेंट) के छात्र थे और अपने कोर्स के अंतर्गत कानपुर के इन उद्योगों की स्टडी करने आये थे। यह हमारा प्रैक्टिकल प्रोजेक्ट था और इस प्रोजेक्ट को करने के लिए हमें हमारे कॉलेज सेहमारी योग्यता के मापदंड पर चुना गया था। हम ने दो दल बना कर इस प्रोजेक्ट को करने की योजना बनाई थी। गौरव सक्सेना और हरीश उपाध्याय ने कपड़ा उद्योग के बारे में शोध करने का बीड़ा उठाया। असदउल्लाह खान और शमीम अहमद ने चमड़ा उद्योग की जानकारी हासिल करने का प्रोग्राम बनाया। और मैं यानि कि सरदार जगत सिंह दोनों ग्रुप का समन्वय कर उनकी स्टडी रिपोर्ट बना रहा था। हमें ये प्रोजेक्ट करने के लिए एक सप्ताह का समय निर्धारित था और उस दिन रोज़ की तरह हम सभी अपने-अपने विषय के बारे में क्या स्टडी की है ये साझा करने के लिए वहाँ होटल में बैठे थे। घड़ी में सुबह के 10 बज रहे थे, बाहर धूप खिली हुई थी। अचानक ही होटल के बाहर से शोर शराबे की आवाज़ आने लगी, जिसे सुनकर हम सभी चौंक उठे और होटल के बाहर आकर देखने लगे। चारो तरफ़ शोर था और धूलउड़ रही थी, कुछ लोग भाग रहे थे और कुछ लोग हाथों में डंडे-लाठी लेकर चिल्लाते हुये उनका पीछा कर रहे थे। भीड़ को पास आते हुए देख कर चौकीदार ने होटल का गेट जल्दी से बंद कर दिया और हमें बाहर सड़क पर जाने से रोका। फिर भी हमने गेट को हल्का सा खोल कर बाहर झाँका। ‘पड़ोस के मोहल्ले में दंगा हो गया है - मार-काट मची है, वहीं से लोग भाग-भाग कर इधर आ रहे हैं।’ - चौकीदार ने बताया। दंगे की बात सुनते ही हमारे अंदर एक तनाव का माहौल छा गया। एक अज्ञात और अदृश्य सी रेखा मानो हमारे बीच कोई खींच गया। कुछ देर पहले जो देश के नवयुवक एक देश की एक पहचान लिए बैठे थे, वो सभी अपनी जाति और धर्म की पहचान लिए एक भेड़ बकरी की तरह जैसे अपने-अपने बाड़े में आ गए। बाहर शोर हो रहा था और दूर कहीं पिछले मोहल्ले में आगजनी से धुआँ उठ रहा था। हम सभी हैरान हो कर ये सब देख रहे थे। तभी मेरा ध्यान उस भागती हुई भीड़ के बीच से उभरते हुए एक आदमी के चेहरे पर गया जो एक अधेड़ उम्र के अच्छे डील-डौल वाला व्यक्ति था - उसके सिर एवं पेशानी से खून बह रहा था। उसकी दाढ़ी में गर्द एवं सिर के बाल अस्त व्यस्त थे, सांसें धौकनी की तरह चल रही थीं, भागते-भागते उसका दम फूल गया था। वह आदमी उमड़ती भीड़ से बचता और उलझन में इधर-उधर देख रहा था। ‘वो कौन है?’ - मैंने पूछा। ‘कोई इज्ज़तदार व्यक्ति लगता है।’ - शमीम ने कहा। दोस्तों के रोकने पर भी मैंने झट से दौड़कर कर उस अधेड़ आदमी को भीड़ से बचा कर होटल के अंदर खींच लिया। चौकीदार ने फिर तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया। हमने उस आदमी को ठंडा पानी पिलाकर बगल की टेबल से कुर्सी खींचकर बैठाया। उसने पानी पीकर हमारी ओर कृतज्ञतापूर्ण नज़र डाल कर धन्यवाद किया। उसके माथे से खून बह रहा था, उस हुज्जत में शायद कोई अंजान पत्थर उस आदमी के भी सिर पर चोट कर गया था। ज़ख्म ज़्यादा गहरा नहीं था, सो गौरव ने तुरंत होटल के मैंनेजर महरोत्रा से फ़र्स्ट ऐड की किट मांगी। हरीश ने खून साफ़ कर उसपर बैंड-ऐड चिपका दिया। वह आदमी कपड़ों और कद-काठी से रईस लग रहा था। हमने उसे ऊपर से नीचे तक देखा - सांवला रंग लेकिन मुख पर बदहवासी, कसरती बदन पसीने से तर, चेहरे पर तरतीब से बनाई हुई मूंछ और दाढ़ी जिसमें धूल और मिट्टी लग चुकी थी, ब्रांडेड कपड़े एवं जूते जो थोड़े मटमैले से हो चुके थे, हाथ में घड़ी और आँखों पर शानदार फ्रेम का चश्मा जो अब टूट चुका था। हरीश से सब्र ना हुआ, उसने सवालों की झड़ी लगा दी और पूछा - ‘अंकल जी! क्या बात है? आप कैसे इस दंगे में फंस गये?