आज हमारा देश गरीबी, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, सांप्रादियक मतभेद जैसी अनेकों समस्याओं से जूझ रहा है। भारत माँ का क्रंदन स्वर समय दर समय बढ़ता जा रहा है एवं वह अपने बच्चों से मदद को पुकार रही है। भारत देश के निवासी होने के नाते हमारा फ़र्ज़ है कि हम देशहित में एकजुट होकर, आपसी मतभेदों एवं निजी पीड़ाओं को भूलकर आगे आएँ एवं माँ के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। इस कविता के माध्यम से कवि लोगो के अंदर सोई पड़ी चेतना को जगाने का प्रयास करता है।
रणभेरी बज उठी मनुज, अब चिर निंद्रा
का त्याग करो,
उठो जागो हुंकार भरो, निज मोहों का परित्याग करो ।
माँ भारती के लाल तुम, हिमशिखर से उद्घोष है,
अब जाग जा रे नासमझ ! तू यूँ कहाँ मदहोश है?
रुदन का स्वर बढ़ रहा, माँ दर्द से
चिल्ला रही,
स्वयं की यह दुर्दशा उससे, अब सही ना जा रही।
चिर प्रतीक्षा में तेरी, माँ हो गयी बेहोश है,
अब जाग जा रे नासमझ ! तू यूँ कहाँ मदहोश है?
सो रहा तू सोच कर, सब ठीक ही है चल
रहा,
सच यही है आज भी, तू परतंत्रता में पल रहा।
वर्तमान खुद पर रो रहा, इतिहास कर रहा अफ़सोस है,
अब जाग जा रे नासमझ ! तू यूँ कहाँ मदहोश है?
हर गली हर शहर में, विद्रोह ज्वाला
उठ रही,
धर्मों के अंतर्द्वंद में, माँ भारती है घुट रही ।
माँ को मरता देख भी, क्यों चुप खड़ा खामोश है,
अब जाग जा रे नासमझ ! तू यूँ कहाँ मदहोश है?
आगे बढ़ो माँ के सपूतों, शत्रु को
ललकार दो,
काल के रथ पर चढ़ो तुम, मृत्यु को भी हार दो।
समर शंख भी बज उठा, रवि कर रहा जयघोष है,
अब जाग जा रे नासमझ ! तू यूँ कहाँ मदहोश है?