उस रोज
कुछ खुशी के फौवारे
जुल्फों की चादर ओढ़े चले जा रहे थे,
मैं ठहरा
थोड़ा सहमा
हिम्मत की और पूछ ही डाला उस साये से,
फिर क्या था
जुल्फे हटी एक हँसी मुस्कुराई
नज़रे झुकाते हुए फिर यूँ मुझसे बोली,
मेरे हमदम
अब फिर से तो न बदलो इस परिभासा को
ये तो मैं ही हूँ जो तुममें कहीं से ही हूँ,
मैं चौका
और सोचा भला ये क्या माजरा हैं
मेरे मुझमे हो के ये मुझसा नहीं हैं,
तभी एक दस्तक हुई
नींद खुली उठा तो पाया
सिलवटे कुछ थी तो मेरे बिस्तर पे पड़ी,
टूटे हुए कुछ बाल
अटखेलियाँ कर रही थी वहीं
गीले हुए तकिये बयाँ कर तो बहुत रहे थे,
पर क्या ये सोच न पा रहा था मैं
शायद मेहबूब होगी मेरी
जो दूर हो के भी कही पास रह रही होगी।