देश के बँटवारे ने कितने घर उजाड़े, कितनों को असमय काल के गाल में पहुंचा दिया और भारत-पाकिस्तान की सरहदों के आर-पार नदियों के पानी को ख़ून से लाल कर दिया---धरती को रक्तरंजित कर हिन्दू-मुस्लिम-सिख की ऐसी खाई पैदा कर दी कि कितनी ही पीढ़ियों का भविष्य स्वाहा हो गया!!! मैं इतिहास की किसी किताब का ज़िक्र किए बिना और इतिहास के पन्नों को खंगाले बग़ैर पंजाब के विभाजन के 72 साल बाद की मुट्ठी-भर तस्वीर पेश करना चाहता हूं जो मैंने इधर के कुछ महीनों में जिया है... फगवाड़ा पंजाब प्रांत के कपूरथला ज़िले की एक विधानसभा है...यहां के वीरान मकानात इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि सिख समुदाय ने यहां से पलायन कर कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, इंग्लैंड और अमरीका का रुख़ कर लिया है---हर गली-नुक्कड़ पर खुले 'वेस्टर्न यूनियन' के आउटलेट भी यही संकेत देते हैं कि विदेशी पैसों के बड़ी खेप की आमद-ओ-रफ़्त है यहां...इन बड़े-बड़े मकानों का अगर कोई पुरसानेहाल है भी तो वो बुज़ुर्ग जो अपनी आख़िरी साँसें गिन रहे हैं और 'पुश्तैनी' जगह को छोड़कर बाहर जाना पसंद नहीं किए...बस, यहां साँसें लेना आसान है क्योंकि आज के प्रदूषण का दंश झेले बिना आप अपनी ज़िंदगी यहां आसानी से गुज़ार सकते हैं... फगवाड़े के अंदर के ज़्यादातर मकानात की डिज़ाइनिंग मुस्लिम आर्किटेक्चर की-सी है जिसका सुबूत पलाही गेट इलाक़े के अंदर आज़ादी से पहले 1934 में खड़ा किया गया विशाल "अलनूर मंज़िल" है जहां गेट पर उर्दू में "या अल्लाह" और "या मोहम्मद" दर्ज है और इसे आज तक मिटाया नहीं गया है और आज ये एक अकॉउंटेंट की आरामगाह है...इसी तरह रेलवे स्टेशन छूटते ही आपको मुस्लिम आर्किटेक्चर के-से ढाँचे वाले मकानात झुण्ड के झुण्ड खड़े मिल जाएंगे...यहां के सैकड़ों मकान खंडहर में तब्दील हो चुके हैं जिसका मालिक शायद कोई नहीं वरना ज़्यादातर मकानात का ढाँचा आज के-से अंदाज़ में कर अपना बना लिया गया है---क्योंकि तमाम पुराने मकानों पर इतनी बार सीमेंटेड प्लास्टर चढ़ा दिए गए हैं कि उनकी शिनाख़्त करना मुमकिन नहीं रहा कि ये कब के बने हो सकते हैं---बस लाल बजरी वाली महीन ईंटों से बने ये ढहते मकानात और इनमें बने 'ताख़ों' से झलक मिल ही जाती है कि एक ज़माने में एक मुस्लिम ही था इन मकानों का असली मालिक...और कुछ मकानों के (नक़ली) मालिक तो ऐसे हैं कि उनके पास इतने रिसोर्सेज़ ही नहीं कि पुराने डिज़ाइन के मकानों की साज-सज्जा का ख़्याल रख सकें और कई बुज़ुर्ग आज़ादी के दौर के टेबल फ़ैन लगा मोहारे पर ही अपना पूरा दिन गुज़ार देते हैं, कई पुराने मकानों की ऊँची दालानों पर बैठकर पूरे दिन आने-जाने वालों को निहारते रहते हैं जिससे ऐसा लगता है कि इनके पास कोई काम-धंधा ही नहीं...यहां की गलियों में पुराने ज़माने की तरह लोग दिन भर ताश खेलते हुए मिल जाएंगे...और ये गलियां भी ऐसी कि जो मुस्लिम मोहल्लों की संकरी, ऊँच-नीच, ऊबड़-खाबड़ गलियों की-सी लगती हैं जिसे 47 से पहले के मुसलमान छोड़कर चले गए थे...और इसी तरह सिखों के अंदाज़ और आर्किटेक्चर वाली वो गलियां भी होंगी जो आज के मोहाली के पाकिस्तान में हैं जहां आज मुसलमान क़ाबिज़ हैं! कभी-कभी लगता है कि क्या यहाँ आज के दौर की टेक्नोलॉजी अपनी घुसपैठ नहीं कर पाई है या लोग एंड्रॉयड फ़ोन से इतने दूर हैं??---क्योंकि लोगों के पास वक़्त है एक-दूसरे को वक़्त देने का...लोगों के पास टाइम है एक-दूसरे के दर्द को महसूस करने का और लोगों के पास स्पेस है एक-दूसरे का नाम जानने, फ़ितरत का मुताला करने और एक-दूसरे के घरों में आने-जाने का...ऐसे माहौल में ऐसा लगता है कि काश! देश का बंटवारा न होता तो तारीख़ अलग कहानी कह रही होती और आज की पीढ़ी सिर्फ़ अपने मोबाइल के इंटरनेट वाले गूगल से अपना इतिहास न ढूँढ रही होती... यहां नाई की दुकानों पर अगल-बगल और पीछे का बाल ऐसे उड़ा दिया जाता है जिससे आपको टकले होने की झलक मिलने लगे और लोगों की स्टाइल आज भी पुराने ढर्रे पर चलती दिखती है क्योंकि पंजाबी गानों/रिमिक्स में भी पुराना ठसक और स्टाइल ही देखने को मिलता है...फगवाड़े में बेडशीट, दरी, चद्दर, कंबल की बहुतायत है और यहां से थोक के भाव इसकी सप्लाई भी होती है जिससे आपको इक्का-दुक्का आइटम भी सस्ते में मिल जाता है...यहां ज़्यादातर दुकानों पर आपको टीवी लगी मिल जाएगी जिसमें लोग न्यूज़ सुनते या फ़िल्में देखते मिल जाएंगे और मोबाइल में व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी वाली फ़ेक न्यूज़ से दूर लोगों को सही-ग़लत न्यूज़ का मुआयना करना भी बख़ूबी आता है जिसको देखकर मैं दंग रह गया वरना पूरा देश आज फ़र्ज़ी और विध्वंशक ख़बरों की चपेट में है और पंजाब इससे दूर है ये अपने-आप में एक पॉज़िटिव सिम्पटम है देश को एक नई राह दिखाने के लिए... दुकानदार फुटकर सामानों की रसीद नहीं देता है फगवाड़ा में, इसे आप जीएसटी टैक्स में सेंधमारी कह सकते हैं हालांकि थोक वाले माल पर यही टैक्स अदा करता है व्यापारी---ये जो भी है पर इससे सबको कुछ सस्ते में भी आइटम मिल जाते हैं...यहां फल कुछ सस्ते हैं, जो सेब अलीगढ़ में 120 रुपए किलो मिलता है वैसा सेब आप यहां 60 में पा सकते हैं और सेब की बतायी क़ीमत से 20-30 रुपए डायरेक्ट कम कर देता है ठेले वाला जो मुझे देश के किसी और शहर में देखने को नहीं मिला...खानपान के सस्ते होने और आपसी रिश्तों में मिठास होने से हमें पंजाब में ग़रीबी कम देखने को मिली! उर्दू के नाम पर पंजाब में हिंदी के पंजाब केसरी वाला लाला जगत नारायण का 'हिन्द समाचार' नाम का अख़बार ही आता है जिसमें ख़बरों का ढाँचा अमूमन सेंसेशनल और ज़बरदस्ती टाइप वाले देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत रहता है...हिंदी अख़बारों के लोकल पन्ने अक़्सर ही करोड़ों की हीरोइन/अफ़ीम की तस्करी की ख़बरों से सने मिलते हैं जिससे साफ़ हो जाता है कि कथित 'उड़ता पंजाब' अभी भी नशाख़ोरी की वीभत्स और भीषण समस्या से अपने आपको निकाल नहीं पाया है...साथ ही 'ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद फ़ोर्स' के चरमपंथियों की गिरफ़्तारी और एक्टिविटीज़ की ख़बरें पंजाब के अख़बारों के लोकल पन्नों पर रोज़-बरोज़ पढ़ने को मिल जाती हैं जिससे साफ़ हो जाता है कि पंजाब के अलगाववाद की समस्या आज भी कहीं न कहीं ज़िंदा है जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया बराबर दबाकर रखती है... पंजाब के इस फगवाड़े में अलीगढ़ या देश के दूसरे ख़ित्तों की तरह मग़रिब के वक़्त अज़ान की धूम नहीं रहती क्योंकि यहां के सारे मुसलमान ख़ून-खराबे के बीच पाकिस्तान भाग गए थे---शाम होते ही यहां सन्नाटा-सा पसरने लगता है क्योंकि यहां लोग सही वक़्त पे खाना खाते हैं और हर काम अपने वक़्त पे करते हुए ज़िंदगी गुज़ारते हैं---ज़्यादा टेंशन लेते नहीं और जिस काम में भिड़ते हैं उसमें बिना ज़्यादा दिमाग़ लड़ाए दिल लगाकर करते जाते हैं और शायद इसीलिए यहां आपको ज़्यादा उम्र वाले सिख बुज़ुर्ग दिख जाएंगे...दौड़ते-भागते-चोट खाते बच्चों की परवरिश में आज की आधुनिक तकनीक रुख़ना नहीं है क्योंकि इनके 'ह्यूमन डेवलपमेंट' में एंड्रॉयड फ़ोन, वीडियो गेम्स वग़ैरह बाधक नहीं बन पा रहे हैं... अंदर के मेन मार्केट की छोटी-सी मस्जिद पहले क़ब्ज़े में थी और बड़ी जद्दोजहद के बाद इसमें अब नमाज़ अदा होने लगी है लेकिन आज भी इसके एक पोर्शन में दुकानदार अपने फ्रेम वाले फ़ोटोज़ की दुकान चलाता है और इसकी शाइस्तगी बस इतनी है कि नमाज़ के वक़्त ये फ़ोटोज़ को ढंक देता है! इसी फगवाड़े में बनी 1945 की जामा मस्जिद का ढांचा शायद मुकम्मल न हो पाता अगर पता होता कि देश दो टुकड़ों में बंटेगा और भारत के पंजाब से मुसलमानों को भागकर पाकिस्तान जाना पड़ेगा और पाकिस्तान के मोहाली के सिख भारत के पंजाब पलायन कर आएंगे...ये आलीशान मस्जिद ये साबित करती है कि मुल्क के बंटवारे से पहले यहां मुसलमानों का तांता था...इस मस्जिद के गली वाला गेट सिर्फ़ जुमे के दिन खुलता है जबसे कुछ कट्टरपंथी तत्वों ने एक विवाद को जन्म दिया था और दूसरी तरफ़ से गेट पाँचों वक़्त की नमाज़ के लिए खुलता ज़रूर है पर मस्जिद के इमाम समेत कमोबेश सारे नमाज़ी बाहरी होते हैं क्योंकि बंटवारे के दौरान ख़ून-खच्चर के बीच शायद एक भी मुसलमान यहां रुक नहीं पाया था क्योंकि मुझे एक भी पुश्तैनी पंजाबी मुसलमान का घर पूरे फगवाड़ा में नहीं दिखा जिसमें वो ख़ुद रहता हो...छीजती-टूटती इस मस्जिद की रखवाली के लिए हर घड़ी एक पुलिस की तैनाती गेट पर रहती है और मस्जिद के मेन गेट पर इशा की नमाज़ के बाद शटर चढ़ा दिया जाता है...मस्जिद के एक तरफ़ नया बना भव्य मंदिर है और दूसरी तरफ़ बिल्कुल ही सटकर एक घर और रसोई है जहां मैं रात का खाना खाया करता था और एक वक़्त में इसी आंटी से इमाम साहेब भी शुद्ध शाकाहारी खाना खाया करते थे...इस बात से आप समझ सकते हैं कि ये तारीख़ी मस्जिद अपने दामन में इतिहास को समेटे ख़ून के आंसू रो रही है! गली की तरफ़ से इस जामा मस्जिद के ठीक सामने एक पुराने ढाँचे का मकान है जिसके दरवाज़े पर लगे सीलबंद ताले में पता नहीं कितने दशकों का ज़ंग लगा हुआ है और मेन गेट पर इतनी बार नए ज़माने वाला प्लास्टर चढ़ाया गया है कि इसकी शिनाख़्त करना मुश्किल है कि ये क्या रहा होगा?! इसी तरह तमाम ऐसे पुराने मकानों को तोड़कर नई डिज़ाइन दे दी गयी है जो ढहने वाले थे और कई ढहे हुए मकानों का शायद कोई क़ाबिज़ मालिक नहीं होगा और वो अपने पुराने मालिक की बांट जोहता हुआ निढाल हो ढह गया है...गलियों के दोनों तरफ़ सटे हुए आमने-सामने के मकानात और इनके सेंट्रल दरवाज़े और बड़े गेट, बड़ी खिड़कियां साफ़ इशारा करते हैं कि देश का बंटवारा न होता तो भारत के मुसलमानों को अपने हक़ की भीख सरकारों से न मांगनी पड़ती और मुल्क के न जाने कितने सूबों में मुस्लिम हुक्मरां सत्ता पर क़ाबिज़ होते! हालात ये है कि मुस्लिम सूफ़ी मज़ारों पर बाहर से मुस्लिम-हिन्दू और सिख तीनों लोगों के मज़हब को दर्शाती तस्वीरें टांक दी गयी हैं और सिख बिरादरी पूरी शिद्दत से यहां मत्था टेकती है और इसकी साफ़-सफ़ाई का ज़िम्मा भी सिख समुदाय अपने कंधे पर उठाए हुए है---मेरे रूम के बगल में भी एक बड़े-से अहाते में किसी मुस्लिम सूफ़ी की मज़ार है जहां वाल्मीकि प्रकटोत्सव दिवस पर अंदर भण्डारे का आयोजन किया गया---यहां गुरुद्वारे वाले डिज़ाइन का गुम्बद खड़ा कर दिया गया है---यहां हर साल मेला लगता है और ये सब करवाने का पूरा ज़िम्मा सिखों के पास है और ये इस विरासत को संभाल कर न सिर्फ़ रखे हुए हैं बल्कि इसका पूरा ख़्याल भी रखते हैं क्योंकि ये कोई मस्जिद नहीं है और इसमें ये अपनी आस्था का प्रकटीकरण भी कर पाते हैं और अपने अंदाज़ में पूजा-पाठ भी करते हैं!! एक बात ग़ौर करने वाली है कि फगवाड़ा में गुरुद्वारे के बराबर और इसके टक्कर के मंदिर हैं और वो भी भव्य और आलीशान जहां हमेशा पूजा-पाठ की धूम रहती है और ये शायद इसीलिए मुमकिन है कि सिख बिरादरी की हिन्दू देवी-देवताओं में आस्था है और इनके घरों में गुरूनानक जी के साथ हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें भी दीवारों पर टंगी मिल जाएंगी इसीलिए सिख समुदाय और हिन्दू बिरादरी के बीच गहरा तालमेल है और मुसलमानों की इबादत की अलहदगी शायद इन्हें इनसे रिश्ते गांठने से दूर करती है गरचे मुसलमानों की मज़ार या दरगाह को लेकर ये हद दर्जे तक आस्थावान दिखे..! दशहरा के दिन रावण-दहन को लेकर लोगों में ग़ज़ब का उत्साह दिखता है और रावण की दैत्याकार प्रतिकृतियों के इर्द-गिर्द मेला लगता है और तब आपको फगवाड़े की सड़कों पर तांता देखने को मिलता है जो हमारे यहां गोण्डा के क़स्बाख़ास के सतवीं मेले का-सा भान देता है बस फ़र्क़ ये है कि दशहरा हिन्दू धर्मावलंबियों की आस्था पर आधारित है और सतवीं मेला मुसलमानों की मोहर्रम को लेकर...इसी तरह यहां जन्माष्टमी और दिवाली भी काफ़ी धूम-धड़ाके से मनाया जाता है इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि बाहर से आए हिन्दू मतावलंबी इतनी क़सीर तादाद में हैं कि वो सिख धर्म के लोगों की आबादी को टक्कर देते नज़र आ जाएंगे...इस तरह हिंदुओं और सिखों के त्यौहारों को लेकर यहां लोगों में ग़ज़ब का उत्साह देखने को मिला क्योंकि वाल्मीकि जयंती पर तो फगवाड़ा से जालंधर और लुधियाना आने-जाने वाले रोड कई घण्टों तक ब्लॉक कर दिए गए क्योंकि टैम्पो वाले ने बताया कि पिछले साल बस से कुचलकर एक की मौत हो गयी थी और प्रशासन ने सतर्कतावश इस साल ऐसा किया...करवाचौथ का त्यौहार भी फगवाड़े में ऐसे धूम-धड़ाके से मनाया जाता है कि पूछिए ही मत---लोकल टाइप वाले अलग क़िस्म के मिष्ठान्न हलवाई की दुकानों पर बनने और सजने शुरू हो जाते हैं और पके नारियल की ख़पत भी ख़ूब होती है...दिवाली से दस-पंद्रह दिन पहले से ही मिट्टी के सजावटी और सादे दिए बिकने शुरू हो जाते हैं जो साबित करता है कि पंजाब में आज भी दिवाली निहायत ही सादे और परंपरागत तरीक़े से मनाई जाती है! दिवाली के ऐन पहले हर गली-मोहल्ले के नुक्कड़ पर आपको ईख, सिंघाड़ा, मूली, भुट्टा भी बिकता दिख जाएगा जो पंजाब के इस फगवाड़े के समाज में धर्मगत परंपरागत मान्यताओं को क़रीने से दर्शाता है... एक दूसरी मस्जिद का ज़िक्र किए बिना शायद ये लेख अधूरा रहता क्योंकि 1947 से पहले की इस मस्जिद को समतल करना शायद मुमकिन न था लेकिन मस्जिद के आगे के पोर्शन के मुख्यद्वार से सटाकर एक्सटेंशन कर एक फ़ोटो की दूकान और एक नाई की दूकान खोल ली गई है और अंदर से इसमें रिहाइशगाह बना ली गयी है जिसका रास्ता सिर्फ़ इस मस्जिद के पीछे साइड से सटे मकान से होकर जाता है और यहां मैंने बिछे बिस्तर और आराम करते लोग देखे हैं...इस मस्जिद की हालत ये है कि रखरखाव के अभाव में इसकी तारीख़ी मीनारें छीजकर कब भरभराकर गिर जाएंगी इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है---सौ की सीधी बात ये है कि इस मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर लिया गया है और अब शायद ही कभी इस छोटी-सी तारीख़ी मस्जिद को आज़ाद कराया जा सके! फगवाड़ा के प्रेम नगर, गली नंबर 3, रेलवे रोड के एक जीर्ण-शीर्ण मकान में क़याम कर रहे लक्ष्मण दास "मौनी बाबा" विगत 2 साल 10 महीने से मौन धारण किए हुए हैं हालांकि इन्हें पंजाब आए 11 साल हो गए हैं ये बीते साढ़े तेरह साल से परिवार से दूर हैं और इनके पास आज के करोड़पति बाबाओं की तरह न तो भव्य कुटिया है और न ही अंध शिष्यों की मर-मिटने वाली तादाद---मथुरा के मूल निवासी ये मौनी बाबा समाज में आपसी सौहार्द देखना चाहते हैं और इसके लिए ये मौन तपस्या को एक बड़ा हथियार मानते हैं क्योंकि इनका मानना है कि मौन धारण करने से इंसान जीवन में तमाम बुराइयों और फ़ितने-फ़साद से बचा रहता है...मौनी बाबा ने ब्रह्मयचर्य का व्रत नहीं तोड़ा और विवाह के बंधन में नहीं बंधे; कॉपी पर लिखी इबारतों के मार्फ़त इन्होंने बताया कि हरि कृपा तक इनकी मौन तपस्या जारी रहेगी और मौन व्रत टूटने पर ये अपने टूटे-फूटे कमरे में संग्रहीत भगवा वस्त्रों को संतों को दान कर देंगे...आने से पहले इन्होंने नमकीन-बिस्कुट के पैकेट खोले और पानी सामने रख दिया तब मन के एक कोने में ये कुलबुलाहट हुई कि धन-संपदा से कोसों दूर पर दिल से अमीर ये मौनी बाबा आज के करोड़पति ढोंगी बाबाओं से जुदा हैं जो अपनी गुमनाम कठिन तपस्या से मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए समाज में एक संदेशवाहक का काम कर रहे हैं! मैं पंजाब के एक छोटे-से ख़ित्ते को जिया हूँ लेकिन इतना दावे से कह सकता हूँ कि पंजाबी बिरादरी बहुत मेहनती होती है, जिस काम को ये करना ठान लें उसे अंजाम तक ज़रूर पहुंचाते हैं और इनका वही धंधा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है...फगवाड़ा के ज़्यादातर छोटे-मझोले कल-कारख़ाने बंद हो चुके हैं बस एक बरसों पुरानी चीनी मिल-Wahid Sandhar Sugars Ltd. और आज़ादी से पहले 1943 की एक केमिकल फ़ैक्ट्री-The Sukhjit Starch & Chemicals Ltd. बची है क्योंकि कंप्यूटर के इस ज़माने में पुराने ढर्रे पर जीने वाले पंजाब के लोग इस भागमभाग की दुनिया में शायद तारतम्य नहीं भिड़ा पाए और खान-पान वाले धंधे को छोड़कर स्पेयर/मोटर पार्ट्स की ज़्यादातर दुकानों पर ताला पड़ गया है वरना एक दौर में पंजाब का ये फगवाड़ा डीज़ल के जनरेटर की मैनुफ़ैक्चरिंग का हब था! हाँ, यहां पुरानी इमारतों में आज भी इक्का-दुक्का खराद मशीनों वाले कारख़ाने ज़िंदा हैं और स्पेयर पार्ट्स के सामानों वाली दुकानों की भी बहुतायत है जो पंजाब में खेती-किसानी के उपकरणों के ठसक की मिसाल पेश करते हैं... पंजाब के कबाड़ से कबाड़ प्राइवेट लोकल बसों में आपको वीडियो वाला टीवी लगा ज़रूर मिलेगा जो यूपी/बिहार में होने पर शायद बहुत वीआईपी तस्लीम किया जाए! इस टीवी में आपको या तो सिख धर्म के भजन/उपदेश चलते मिल जाएंगे या फिर सिख भाषा के गाने या फ़िल्म... यहां की सब्ज़ी/फल मंडी में ताज़े फल और सब्ज़ियों का अभाव दिखता है और ज़्यादातर फल और सब्ज़ियां कुम्हलाए हुए मिलेंगे जो हमारे गोण्डा ज़िले के गौरा के 'बीफ़े बाज़ार' की तरह लगता है, बस फ़र्क़ ये है कि फगवाड़े में रोज़ सड़क के दोनों तरफ़ ठेले पर सब्ज़ियां/फल सजाकर बेचते मिलेंगे बाहर से आए बिहार और यूपी के लोग, इसके बरक्स गौरा में हफ़्ते में एक बार जुमेरात के रोज़ ज़मीन पर ताज़ी सब्ज़ियां लगाकर बेचते हैं स्थानीय काश्तकार...पंजाब के हर गली/मोहल्ले में आपको गोल-गोल नाचते बड़े-बड़े पतीलों में खौलते दूध मिल जाएंगे और यहां बड़े गिलास में देसी लस्सी पीने का अपना अलग ही मज़ा है...लेकिन पंजाबी संस्कृति, खानपान, रहन-सहन को अगर दरकिनार कर दिया जाए तो यहां के जनगण में राष्ट्रप्रेम का प्रस्फुटिकरण शायद न के बराबर दिखे क्योंकि यूपी/बिहार की तरह लोग यहां सीधे तौर पर देश की जड़ों से पैबस्त नहीं हो पाए हैं और मैंने यही महसूस किया कि अगर इन्हें इनकी अपनी ज़ाती खांटी संस्कृति से काट दिया जाए तो ये देश की केंद्रीय सांस्कृतिक विरासत को सहेजना गंवारा नहीं करेंगे क्योंकि देशप्रेम की ललक/लपट इनकी अपनी ख़ुद की सांस्कृतिक विरासत से होकर गुज़रती है और यहां का बच्चा-बच्चा इस पर क़ुर्बान है और ये एक वजह हो सकती है कि यहां मोदी-लहर न के बराबर देखने को मिलती है... ...और आख़िर में ये बात उस सिख बुज़ुर्ग के लिए जिसके मकान में मैं किराए पर रहा और अक़्सर ही इनकी एक्टिवा से हम फगवाड़ा की गलियों में घूमा करते थे और इनके दिल में ये बात बिठाने में कुछ हद तक कामयाब भी हुआ कि 'मुसलमान अच्छा (भी) होता है'...इनके बेश्तर मकानों में मुस्लिम किराएदार हैं और जब भी इनके साथ रेलवे रोड वाले पीजी पर गया ये अपने परवरदिगार से पहले क्रांतिकारी भगत सिंह की फ़ोटो को प्रणाम करते नज़र आए तब हमें लगा कि अपनी मातृभूमि से जुड़े शहीदों के लिए एक सिख के मन में कितना सम्मान होता है!!! बस...