जनवरी-फ़रवरी में जब नॉर्थ साइड के खेतों में गेंहू की फसल लहलहा रही होती है साउथ के तमिलनाडु में धान पक कर खड़ा होता है और दवाईं-पिटाई का सिलसिला चलता है! इसकी वजह ये है कि यहां ठण्ड होती ही नहीं और जाड़े में मौसम गुनगुना बना रहता है! लाल मिट्टी वाली पथरीली ज़मीन पर फसलों की पैदावार अलहदा है और मुझे ईरोड ज़िले के चेन्निमलाई और तिरुप्पुर ज़िले के कांगेयम के दायरे में नारियल के पेड़ों के मानो जंगलात दिखे हैं --- ये पेड़ ऐसे जैसे अपने यहां 'जमवता' पेड़ कहीं भी उगे मिल जाएं वरना नॉर्थ में दिखावटी तौर पर भी नारियल के पेड़ लगा इसमें फल ला पाना एक दुश्वार-गुज़ार अमल है! कांगेयम से वाया थित्तूपरई चेन्निमलाई के दरमियान पकी गरी से कोकोनट ऑयल बनाने का धंधा चंगा है। तिरुप्पुर ज़िला नॉर्थ के कामगारों से भरा पड़ा है क्योंकि यहां की कॉटन इंडस्ट्री विश्वविख्यात है और बेश्तर मज़दूर व कारीगर तबक़ा बिहार, झारखण्ड, बंगाल, ईस्ट यूपी से आ डेरा डाले हुए है और अपना और अपने बाल-बच्चों/घर वालों का पेट पाल रहे! तमिलनाडु के हर बस अड्डे पर आपको औरतों का जमावड़ा दिख जाएगा जिसमें अधेड़ और बुज़ुर्ग औरतें ज़्यादा नज़र आती हैं। कोई भी धंधा संभालने, कपड़े सिलने, डेयरी से लेकर फलों-फूलों की दुकान हर जगह आपको औरतें दिख जाएंगी। सरकारी लोकल बसों में महिलाओं की यात्रा फ़्री है जहां आगे से फ़ीमेल चढ़ती-उतरती हैं और पीछे से मेल यानि आगे की ज़्यादातर सीटों पर औरतें क़ाबिज़ रहती हैं! नॉर्थ साइड का जान बस के कंडक्टर का रवैय्या कुछ अटपटा ज़रूर रहता है क्योंकि जगहों के नाम बताने पर ये पहली बार में अक़्सर समझ नहीं पाते या समझ न पाने का पाखण्ड करते हैं जिससे 'हिंदी' वाले को थोड़ा नर्वस कर सकें! नोट ज़रा-सा भी कटा-फटा हो तो ये कंडक्टर लेता नहीं, जबकि हमारे यहां 'सब' चलता है! हां, यहां गांव-गांव में सरकार ने लोकल बसों को चला रखा है और शहर-क़स्बे से कोसों दूर बीहड़ से बीहड़ गाँव की सड़क भी फ़न्नेख़ां है! लोकल प्रॉडक्ट का प्रचार-प्रसार इतना कि आपको नमकीन, बिस्कुट, बैग, कपड़े-लत्ते, चड्डी-बनियान, दूध, दही, आइसक्रीम हर रोज़मर्रा की चीज़ लोकल और बेहतर मिलेगी! मिलावट का गोरखधंधा कहां नहीं है, यहां भी होगा लेकिन इतना है जो भी लोकल सामान मैंने इस्तेमाल किया वो बेश्तर 'शुद्ध' लगा है! बैग में रूबिनी, बनियान में पूमेक्स/राजाराम, आइसक्रीम में अरुन वग़ैरह का नाम ले सकते हैं! लाल केले का ज़िक्र न किया तो क्या ही किया! एक केला दस से पंद्रह रुपए का लेकिन खाने में निहायत ही टेस्टी और पौष्टिक! साथ ही लाल रंग का मोटा गन्ना यहां की थाती है जो सरकारी राशन की दुकानों पर राशन के साथ ये मोटा गन्ना भी ऑफ़िशियली बांटा जाता है! जो ठेला या दुकान वाला अंग्रेज़ी का टेन या ट्वेंटी भी नहीं समझ पाता वो दस या बीस के नोट दिखाता है तब क्लियर हो पाता कि सामान कितने का है! और तब समझ में आता है कि सूबाई लोकल भाषाओं के बीच हिंदी को राष्ट्रभाषा बना पाना कितना मुश्किल काम होगा; क्योंकि हर प्रांत की अपनी अलग डायलेक्ट या बोली-भाषा है जहां के अवाम इसमें रचे-बसे हैं और उसी रिजनल लैंग्वेज में सांसें लेते हैं - जीते-मरते हैं! हमारा जहां रहना हुआ वो वीरान व सुनसान-सा गांव वाला इलाक़ा था जहां ऐसे-ऐसे कीड़ों ने काटा कि गाँव का कथित मज़बूत इंसान होकर भी मैं पनाह मांगने लगा! मतलब ये कि कुदरत की अनूठी छटा के बीच रहा, ताज़ी हवा से सांसें साफ़ चलीं, लेकिन एकदम बारीक-बारीक से कीड़ों ने रात-रात भर सोने न दिया, रोज़ दाने निकले पड़े रहे, खुजली होती रही और फफोलों ने ज़ख्म का भी रूप लिया और सही होने पर दाग भी पड़ा! साफ़ है कि कुदरत का नंगा सुकून चाहिए तो इसके दूसरे पक्ष के लिए आपको तैयार रहना होगा! दिसंबर-जनवरी यानि सर्दी में नॉर्थ की पतझड़ वाली रूखी गर्मी का एहसास होता है और मई-जून यानि गर्मी के मौसम में सूरज निकलते ही चमड़ी उधेड़ देने वाली तपिश लेकिन सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद मीठी/मखमली शीतलता का भी एहसास होता है! ये यहां के गरम मौसम का अजब-सा कॉण्ट्राडिक्शन है! यहां मौसम की रुखाई अजीब-सी है, हरियाली दिखे भी तो सब ऊबड़-खाबड़ सा लगता है! चमड़ी की सफ़ेदी लेकर आए हो तो यहां रहते-रहते रंग सांवला हो चलेगा! जो पेड़ यहां के लिए नहीं बने हैं जैसे नीम वो हरा-भरा होकर भी ठूंठ-सा खड़ा मिलेगा; वहीं इमली के दरख़्त हाईवे किनारे भी बहुतायत में दिख जाएंगे जिसे अपने इस्तेमाल के लिए आसपास के लोग तोड़ डालते हैं! ताड़ की तरह दिखने वाले सर्रहटा पेड़ों के 'नुन्गू' के अंदर से कटहल के 'कोवा' की तरह जो फल निकलता है उसे खा मानो आत्मा तृप्त हो जाए - जिसका शर्बत भी बनता है जो निहायत ही देसी पेय पदार्थ है और नारियल के ही पत्ते का दोना बनाकर पीने के लिए भी देसी तरीक़े से दिया भी जाता है! हां, ये गर्मियों में बिकता है जो डिहाइड्रेशन और पेट के रोगों के लिए गुणकारी है! भुट्टा भून कर नहीं उबाल कर 'उसिन' दिया जाता है, मूंगफली भी भुना नहीं उबला हुआ मिलेगा! फल नॉर्थ से महंगे बिकते हैं! देहात के इलाक़ों में आपको लोग नंग-धड़ंग घूमते दिख जाएंगे! गांवों में बाथरूम में पानी गर्म करने को अंगीठी बना दी जाती है और बाहर से लकड़ी ठूंसकर नहाने के लिए पानी गर्म किया जाता है; पता नहीं कैसे ठण्ड में भी गरम मौसम होने पर यहां लोग पानी गरम कर नहाते होंगे!? यहां के लोग ठण्डे मिज़ाज के हैं; हां इनका ग़ुस्सा नाक पर भी होता है और बोली ऐसी कि ठन-ठनाठन बजेगा यानि बोली तेज़ और तुर्श ही रहती है चाहे बात कान में भी कहनी हो - शायद तमिल भाषा के बोल ही ऐसे हों! पोंगल का त्यौहार ऐसा कि हर दरवाज़े के सामने आपको हस्त-कलाकृतियां बनी हुई दिख जाएंगी! साफ़-सुथराई का दंभ ऐसा कि आपको हर-हालत में चप्पल-जूते बाहर निकालने पर ही एंट्री मिलेगी - चाहे दुकान हो या मकान! पोंगल के रस्म को निभाने के लिए औरों की तरह मुझ जैसे ग़ैर-तमिली की आँखों पर पट्टी बांध सोटा पकड़ाया गया और मैं मटकी फोड़ने की ग़रज़ से जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया मेरे सामने मटकी तक जाने की दिशा को डाइवर्ट करने के लिए लोग हो-हो, भो-भो करते और चिल्लाते गए! ख़ैर मैं मटकी नहीं फोड़ पाया, इसे एक 'सिद्धस्त' महिला ने फोड़ा! इसके बाद कण्डे की आग से कच्ची मिट्टी की हांडी में गुड़ मिक्स कर बनने वाला चावल का मिष्ठान्न ऐसा भाया कि इसके सामने कितनी ही ब्राण्डेड हलवाई की मिठाई फीकी पड़ जाए! और, इसीलिए कहता हूं कि आपको असली प्राचीन भारत देखना हो तो तमिलनाडु के रूरल इलाक़ों की ख़ाक छाननी ही होगी वरना तमिलनाडु को ले कितनी ही किताब पढ़ लीजिए, कुछ न होगा! रंगीन व रंगारंग प्राइवेट बस और इसके अंदर बजता तमिल भाषा का तेज़ साउण्ड वाला संगीत, कोई कोई गाने सुनो तो लगता है कि तमिल धुनों पर कितने हिंदी गाने बना दिए गए हैं! चौराहों पर मुख्यधारा की सभी सियासी पार्टियों के झण्डे लगाने के लिए बाक़ायदा जगह मुंतख़ब है और लोहे की पाइप को जमा पार्टी की तक़वीयत के हिसाब से थोड़ा ही ऊंचा-नीचा कर झण्डा लगा दिख जाता है! TVS की 'बिक्की' बाइक जो नॉर्थ साइड में अब लुप्तप्राय हो गई है यहां आज भी गांव-क़स्बे के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है जिसका इस्तेमाल खेती-किसानी या कम दूरी पे सामान ढोने के लिए किया जाता है! मरे हुए लोग चाहे बुज़ुर्ग हों, बच्चे या जवान सड़क के मोड़ पर फ़ोटो लगा व 'ऑर्गेनिक' फूलों का माला पहना दिखा हमें --- वहीं क्षेत्रीय नेताओं जैसे KCR, जयललिता, एम. करुणानिधी आदि को महानायक बना पूजा जाता है, पार्टी की भक्ति के हिसाब से इनकी तस्वीरें आपको घर-घर में मिल सकती हैं और शायद इसीलिए यहां सत्त्ता में भाजपा का अभ्युदय नहीं हो पाया है क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का दुमछल्ला बन ही बीजेपी या कांग्रेस यहां सत्ता में बनी रह सकती हैं! ईरोड स्टेशन पर चाय का ज़ायका कांगेयम की चाय की तरह ही बेहतर रहा, स्टेशन पर आम व अनन्नास की कतली तीखे नमक के साथ मिलना साबित करता है कि ये ऑर्गेनिक ही तो है जो यहां के लोगों के सर चढ़कर बोलता है! बड़े-बड़े पत्थर आपको सुनसान-वीरान जगहों के साथ आबादी में भी पड़े दिख जाएंगे! जानवरों का ज़िक्र हो तो बंदरों की पूंछ बड़ी होती है, नॉर्थ में तो बंदर की पूंछ ठूंठ की तरह घुटी-सी रहती है! गाय के चेहरे में भी मुझे साउथ का-सा एहसास हुआ है! हाथी का भी अपना अलग ही रुतबा है यहां जो नॉर्थ के नीलगाय के-से अंदाज़ में वीरान-सी जगहों पर गांव किनारे खेतों या कभी-कभी आबादी वाली जगहों पर कहीं भी नमूदार हो सकते हैं! यहां नॉर्थ की तरफ़ के इंजेक्शन वाला मरियल मुर्ग़ी का चिकन नहीं मिलता बल्कि देसी मुर्ग़ी के चिकन का लुत्फ़ उठा सकते हैं क्योंकि यहां लोगों के रहन-सहन की तरह खान-पान भी 'ऑर्गेनिक' है! सब्ज़ियां ऊंटी जैसे ठण्डे ख़ित्ते में पैदा होने से दाम आसमान छू रहा होता है! हिन्दू हो या मुस्लिम नॉर्थ वालों को 'हिंदी' ही कहा जाता है, किराए का घर (वीडा) खोजने के दौरान भी एक बच्चे ने मुझे भांप कर कहा कि 'हिंदी'! पड़ताल करने पे पता चला कि हिंदी मतलब नॉर्थ इण्डियन को लोग वीड यानि हाउस किराए पर देते हैं तो ये लोग कहीं भी कांटी ठोंक कर कपड़े फैलाने, झोला टांगने का जुगाड़ करने लगते हैं, चप्पल पहन घर के अंदर घूमते हैं, कहीं भी पान/गुटखे की पीक थूक मारते हैं, रेगुलर घर की साफ़-सफ़ाई नहीं करते, घर में जाला-माला लटका रहता है वग़ैरह-वग़ैरह! मतलब उत्तर भारतीयों को किराए पे कमरा देने पे कथित नफ़रत की बजाय ये चीज़ें (भी) निकल के आई हैं! खाना को सापड़, पानी को तन्नी, नमस्ते के लिए वडक्कम, बैठने के लिए कोरो जैसे कुछ शब्द ही मैं सीख पाया या यूं कहें सीखना ही नहीं चाहा! दिन के खाने में आपको नारियल की चटनी नहीं मिलेगी; शाम के वक़्त तली हुई मछली स्नैक्स के तौर पर मिलती है तो आप इनके ऑर्गेनिक जीवन-शैली को बख़ूबी समझ सकते हैं! गांवों की सुबह सीरीन और शीतल! जगते ही आपको सबसे पहले नारियल के पेड़ ही देखने हैं! और ऐसा देख मेरा जी भी जुड़ा जाता था! माथे पर सफ़ेद या रंग-बिरंगा टीका/भस्म को गले में भी मल लेने की परंपरा आम है जिसका निर्वहन एक छोटे बच्चे से लेकर बुज़ुर्ग तक करते नज़र आते हैं! बच्चों और मर्दों को छोड़ दो यहां औरतें भी बालों का मुंडन कर टकला हो व सिर पर 'भभूत' पोत सार्वजनिक जगहों/बसों में घूमती नज़र आ जाती हैं जो नॉर्थ में नीम के पत्ते पीस टकले सर पर लोग लगा लेते हैं जो अमूमन बच्चे ज़्यादा करते हैं और औरतों का ऐसा करने का सोचना भी त्याज्य है! कॉलेज के किसी भी फ़ंक्शन या इवेंट पर मेहमान का स्वागत यही टीका या भस्म लगा के किया जाता है और शादी-विवाह के दौरान केले का साबुत 'घर', नारियल पानी वाला भरा खोपड़ा आदि स्वागत-द्वार पर लटका दिया जाता है और गेट कृत्रिम न होकर नारियल व केले के पत्तों से तैयार किया जाता है! नारियल का खोपड़ा व पत्ता सूखने पर ईंधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि डोसा भट्ठी पर बनता है, ये गैस सिलिंडर वाले चूल्हे पर बनाना मुमकिन नहीं! मैंने एएमयू से सीखा है कि जगह की वजह से किसी को अच्छा-बुरा मत कहो! उसी फलां जगह का इंसान हद दर्जे का बुरा हो सकता है और बिल्कुल ही उसी जगह का शख़्स निहायत ही अच्छा, नेक और भलमनसाहत वाला भी होता है! ये यहां तमिलनाडु में भी लागू होता है क्योंकि इसका लिटमस टेस्ट भी हुआ/किया था मैंने! कुछ लोगों को मैं फूटी आंख नहीं सुहाता था और कुछ लोग मुझ से ऐसे घुल-मिल गए जैसे मैं उन्हीं के कल्चर व रहन-सहन में रचा-बसा-सा हूँ! दिलों का ही हेर-फेर होता है मेरे भाई; दरअसल चाहकर भी ज़हनी तौर पर भ्रष्ट, खोखले और दोग़ले लोगों से मेरी पटरी खा ही नहीं सकती है भले ही इससे मेरा कितना ही नुक़सान क्यों न हो जाए! समीकरण बनने पर जब आधे घण्टे में मुझे हॉस्टल रूम से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ा तो हसद वालों को छोड़ हमारे ख़ैरख़्वाह भी नज़र आए और मैंने हाईवे से सटे 'परावलासू' नाम के गांव में कुल जमा तीन रातें गुज़ारीं और इस तरह तमिलनाडु जैसे भारत के दूसरे ख़ित्ते के गांव की ज़िंदगी में रमकर रात गुज़ारने की मेरी चिर-अभिलाषा भी पूरी हो गई! हाथी मरा भी तो सवा लाख की कहावत तब चरितार्थ होती नज़र आती है जब नारियल का पेड़ गिरने पर ऊपरी हिस्से की परतों को उघाड़ कर सब्ज़ी की तरह काट कर कच्चा खाया जाता है जो बाज़ार में बाक़ायदा मिनिमम 50 रुपए का एक पत्ता में बिकता नज़र आता है - पर ये हमेशा और हर जगह नहीं मिलता और ये शुगर पेशेंट के लिए काफ़ी कारगर साबित होता है! नारियल के खोपड़े से पानी निकालने के बाद जो कच्ची गरी बचती है उसे 'कोंचा-कोंचा' टुकड़ों में काट ऐसा शर्बत बनता है जो यहां दिन और दोपहरी की भीषण गर्मी में तरावट देने का काम करता है। हां, नारियल पानी पीने के बाद यहां अक़्सर ही लोग खोपड़ा उतरवा मुलायम नारियल निकलवा के खा जाते हैं और बाद में इनकी देखा-देखी मैं भी ऐसा करने लगा! यहां बेश्तर महिलाएं स्वावलंबी दिखीं! अपने पति को सोलह साल पहले खो देने वाली एक महिला से रोज़ ही मिलता रहा जिनकी दोनों पुत्रियां और इकलौता पुत्र विवाहोपरांत अपने ठिकानों पर हैं और ये महिला आज भी काम कर अपना भरण-पोषण ख़ुद करती है और सांय-सांय करते अपने गांव के घर में तंहाई से भरी ख़ुश्क ज़िन्दगी गुज़ार रही हैं! इनके घर के छप्पर को निहारा तो नारियल के सूखे पत्तों के सहारे निहायत ही करीने से बुना गया छप्पर ऐसा था कि बारिश में इसमें से एक बूंद भी पानी न टपके! कहना न होगा कि हिंदुस्तान की ठेठ देसज व पौराणिक जीवन-शैली को टटोलना हो तो तमिलनाडु के रूरल इलाक़ों से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता है! और, अपनी माँ को अम्मा कहने के-से अंदाज़ में जब-जब मैं 'सापड़' लेने या चाय बनाने के दौरान इन्हें 'अम्मा' कहता तो इनकी आंखें चमक उठतीं! लेकिन जिस वीरानी में, तंहाई में, सड़क पर चलते हुए, हर चक्की-चौराहे पर अनजान लोगों की नज़रों से बचते-बचाते जब-जब मैं अपनी 'अम्मा' को याद कर चीख़ता/दहाड़े-सा मारता तो यही एहसास होता कि जब तक इंसान की अपनी माँ नहीं मरती वो सच्चे मानों में दूसरे की माँ के मरने का एहसास कर ही नहीं सकता है! हां, 'प्यूबर्टी ऐज' वाले एक फंक्शन को अटेंड कर मैं हैरान रह गया क्योंकि ऐसा लगा कि कोई शादी-समारोह हो जहां लड़की की उम्र 18 साल होने पर भव्य पार्टी रखी जाती है जिसमें रिश्तेदारों के साथ क़रीबी दोस्तों व अन्य को इसलिए भोज दिया जाता है कि डंका बज जाए कि फलां लड़की शादी के लायक़ उम्र के पड़ाव पर पहुंच गई है और अब कोई भी रिश्ते का आदान-प्रदान कर सकता है! सोचिए! नॉर्थ में ऐसा हो जाए तो बवाल हो जाए! और, उल्टा लड़की पक्ष की ही थू-थू हो जाए! तमिलनाडु की सहकारी समितियां क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं क्योंकि इसके मार्फ़त स्वदेशी धंधों को इतना फैलाया है लोगों ने कि कइयों को पदमश्री से नवाज़ा गया है! देसी ठसक का बेहतरीन अंदाज़ दिखा है तमिलनाडु में जहां त्यौहारों में नॉर्थ साइड के नाजायज़ ग्लैमर की जगह शुद्ध देसी पकवान, खानपान, साज-सज्जा को ऑर्गेनिक ढाँचे में ढाल दिया जाता है! केला, नारियल, चावल जैसे देसज चीज़ों से काम चला लिया जाता है; धार्मिक मेले/अनुष्ठान के दौरान चेन्निमलाई में देखा कि पहिए लगे 'मूवेबल' भव्य मंदिर बीच चौराहे पर ला खड़े किए गए और पूजा-पाठ के लिए लोग कतारबद्ध हो गए - पुजारी मंदिर के अंदर काफ़ी ऊपर बैठ रस्सी के सहारे पूजा-पाठ की सामग्री लेते और नीचे सरकाते रहे! पूजा में चावल, नारियल, केले जैसी ऑर्गेनिक चीज़ें ही दिखीं! हाँ, पूजा-पाठ का दौर समाप्त होने पर अनगिनत देवी-देवताओं की नक़्क़ाशी वाले साउथ टाइप के ये मंदिर सड़क किनारे टिन-शेड से पूरी तरह से ढक दिए जाते हैं और तब तक इसमें पूजा वग़ैरह अवरुद्ध रहता है! हिंदू धार्मिक आस्था और रीति-रिवाजों के मामले में तमिली निपट आस्थावान दिखे जहां ये नॉर्थ के कांवड़ियों की तरह पलानी नाम के मंदिर के लिए चेन्निमलाई इलाके के गांवों से हाईवे पर नंगे पैर सैकड़ों किलोमीटर का सफ़र तय किए जा रहे और इनके माथे पर शिकन भी नहीं! पैर नंगे और बदन भी नंगा यानि तन पर गुप्तांग ढकने तक के कपड़े और लोग भागे चले जा रहे जहां रास्ते में अलग-अलग जगहों पर इनके लिए जलपान/खानपान की व्यवस्था रही! भिखारी यहां भी दिखे और नॉर्थ टाइप के 'बौरहा' भी; बस फ़र्क़ इतना है कि ये तमिल भाषा में अपने बौरहापन का मुज़ाहरा करते हुए सड़क पर डुडुवाते मिल जाएंगे! मुसलमानों की तरह हिंदू तमिलभाषी भिखारी भी जुमे के दिन मस्जिद के बाहर भीख मांगते दिखे! गोकि हिंदू-मुस्लिम के दरमियान वैमनस्य की भावना नॉर्थ की तरह नज़र नहीं आई लेकिन तमिलनाडु की पुरातन हिंदू सभ्यता के बीच आप घुटते नज़र आ सकते हैं क्योंकि मुसलमानों का पहनावा, चाल-ढाल, बोली-भाषा निपट तमिली ही है जहां मस्जिदों में तक़रीर तमिल भाषा में होती है और जमातियों की तालीम भी तमिली में; हालांकि यहां के मुस्लिम उर्दू भी समझ लेते हैं और टूटा-फूटा बोल भी लेते हैं! साउथ के फ़िल्मों की तरह यहां सच में राजनीति अजीब और अलग तरह की दिखी है! एक राजा, बाक़ी सारे प्रजा वाली राजनीति! एक बार भी एमएलए या एमपी बनने वाले नेता के पास इतना पैसा रहता है, इतना पैसा रहता है कि उसके विधानसभा या संसदीय क्षेत्र की जनता आर्थिक व सामाजिक तौर पर पिछड़ेपन का शिकार रहती है! और, अपने नेता के सामने जनता दण्डवत भी रहती है, आवाज़ नहीं निकाल सकती और दमन-उत्पीड़न का जीवंत प्रतिमान बन के रह जाती है! ऐसा लगता है भ्रष्टाचार की गंगोत्री यहीं से फूटती है और जो क़ब्ज़ा कर ले गया उसके पास अरबों की संपत्ति है, बाक़ी सब कंगाल! ऐसे में विचित्र-सी दाढ़ी-मूँछ रख झक सफ़ेद शर्ट-धोती वाला तमिली नेता ख़ूब चरबियाया घूमता है! एजुकेशन सिस्टम भी बहुत गया-गुज़रा है यहां और बगल के केरल से इसकी कोई तुलना हो ही नहीं सकती! नेता तो अपने काले धन को मानो सफ़ेद करने के लिए कॉलेज खोले पड़ा हो - कॉलेज चाहे चले या न चले इसे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता - उसे अपने बेईमानी के रक़म को सहेज कर रखना है और एजुकेशन से बेहतर धंधा कोई हो नहीं सकता और यहां सरकार भी जल्दी हाथ डालना नहीं चाहती!