Autho Publication
7Fz8ouV_q10HFiOit9PXgBk2HveCnOK6.jpg
Author's Image

by

Brij Mohan Sharma

View Profile

Pre-order Price

199.00

Includes

Author's ImagePaperback Copy

Author's ImageShipping

BUY

Chapter 1 :

अध्याय - १

जैसे रोज़-रोज़ बाज़ार में खाकर जी ऊब जाता है, मन करता है कि अब घर का सादा भोजन मिले। ठीक वैसे ही पत्रकारिता में रोज़-रोज़ की हत्या, दुर्घटना, अपहरण, बलात्कार आदि के समाचारों को लिखते-लिखते मन करता है कि जीवन के सुनहरे पहलू के बारे में भी कुछ लिखूँ। पीड़ाजनक ही सही लेकिन यह मौका भी मिल गया। हुआ यूं, कि पैर में मोच आ जाने के कारण डॉक्टर ने दो सप्ताह के लिए बिस्तर पर लेटने का परामर्श दिया - अर्थात इतने दिन घर पर ही रहना है। बस इस घटना को परेशानी की जगह एक सुअवसर मान कर घर में लेटा-लेटा सोच रहा हूँ कि किस विषय पर लिखूँ। सोचता हूँ समाज में कई बदलाव हो रहे हैं - आधुनिक तकनीक ने जीवन में काफ़ी दखल दे दिया है। सबके हाथ में मोबाइल है, सभी को पल-पल पूरे जगत की जानकारी उपलब्ध है। आध्यात्मिक से लेकर वैज्ञानिक, भौगोलिक आदि सभी तरह का ज्ञान इंटरनेट के माध्यम से सब को मिल रहा है। सूचना की बाढ़ में सच्चाई कितनी है - पता नहीं! आज के समाज में हर व्यक्ति सूचना से तो जुड़ रहा है लेकिन अपने और अपनों से दूर हो रहा है। अब किसी को किसी से मिलने की ललक नहीं है, बस मोबाइल से वीडियो या आडिओ कॉल कर लिया या फिर सोशल मीडिया पर संदेश देकर तसल्ली कर लेता है। मेरा फ़ोन भी मेरे जल्द ठीक हो जाने की शुभ कामनाओं से भरा हुआ है। लेकिन मैं तो लेखन के विषय को खोज रहा हूँ - पूरी तन्मयता के लिए मैंने अपना मोबाइल भी बंद कर दिया और पलंग पर लेट गया। ऊपर घूमता पंखा किसी काल-चक्र की तरह मुझे मेरे जीवन के ५० वर्षों की यादों को एक वृत चित्र की भांति दिखा रहा है। गत ३० वर्षों का लेखन-पत्रकारिता में बीता जीवन एक पल में ही सपाट सड़क सा निकल गया। कहीं कोई ऐसा मोड़ नहीं मिला जहां मन ठहर जाए - अतः अब यादों की यात्रा और पीछे पहुँच गई जब मैं कॉलेज में था। सन १९६९-७० का समय था जब मैं कॉलेज में था - कलकत्ता विश्वविधालय साम्यवाद के लाल रंग से सुर्ख रंगा था। नक्सलपंथ आंदोलन की ज्वाला से पूरा बंगाल सुलग रहा था फिर छात्र समुदाय तो ऐसे आंदोलन में इंधन के रूप में प्रयोग किए जाते हैं - अतः कॉलेज के दिनों की यादें भी मुझे कुछ सकारात्मक लिखने को उपयुक्त नहीं लग रही थीं। छत का पंखा घूम रहा था - और मेरा मन मेरे अतीत में और गहरे गोते लगा रहा था। मैंने करवट ली और कमरे के फ़र्श को देखने लगा। पलंग के पास रखा पाँव-पोश, उस पर मेरी चप्पलें, एक छोटी तिपाई, उसपर रखा पानी का जग और गिलास, और दूर कोने में मेरी स्टडी टेबल जिस पर रखी मेरी डायरी और किताबें। लेकिन स्टडी टेबल और पलंग के बीच फ़र्श पर खिड़की से छन कर पसरी हुई धूप पर मेरी नज़र टिक गई, या यूं कहूँ कि मन अटक गया। वो “एक टुकड़ा धूप का” मानो मुझसे कह रहा था कि - ‘कुछ याद आ रहा है?’, और मैं रोमांच से भर गया। वह “एक टुकड़ा धूप का” मेरे जीवन की सबसे सुंदर और सुगंधित याद है। मेरी आँखें भावना से द्रवित हो बहने लगीं, न जाने कितनी देर मैं उस सरकते हुए धूप के टुकड़े को देखता रहा जब तक वह कमरे के दूसरे कोने में जाकर छुप ना गया। मेरी आँखों में आँसू मगर होठों पे मुस्कान छा गई। मैंने तो लेखन का एक विषय ढूँढने के लिए यादों की परतों को पलटा था - यहाँ तो एक श्रद्धांजलि लिखने का दैवी आदेश प्राप्त हो गया। मैं उठ कर बैठा - जग से उंढेल कर पानी पिया और उचक-उचक कर मोच लगे पाँव को संभाला, अपनी स्टडी टेबल पर रखा चश्मा और कलम उठाया - कुर्सी पर बैठा, और उस दिव्यात्मा की प्रार्थना में आँखें बंद कर लीं। जब आँखें खोलीं तब तक सूर्यास्त हो चुका था - कमरे में हल्का सा अंधेरा छाने लगा था। उठकर लाइट जलाई, कमरा रोशन तो हुआ लेकिन मैं फ़र्श के उस स्थान को देख रहा था जहां थोड़ी देर पहले धूप थी। धूप का वो टुकड़ा मेरे मन के आँगन पर अभी भी अलौकिक आभा बिखेर रहा था। मैंने अपने लिए चाय बनाई और चुस्की लेते हुए पुरानी यादों को सहलाता रहा, मुस्कुराता रहा।

Comments...