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Chapter 3 :

पिता

मैं जैसे ही ऑफ़िस पहुँचा, तो मिस्टर डेविड एल्बर्टो जो कि मेरे बॉस हैं, उन्होंने मुझे अपने कैबिन में बुलाकर मेरे प्रोमोशन की ख़बर मुझे सुनाई। वाकई मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। मुझे सिर्फ़ एक साल के अंदर ही, असिसटेंट मैनेजर से सीधा मैनेजर बना दिया गया था। मगर अचानक ही मेरी ख़ुशी अर्थहीन सी हो गई। जब मिस्टर एल्बर्टो ने कहा, “शिवा... प्रोमोशन के साथ-साथ तुम्हारा ट्रांसफ़र दुबई किया जा रहा है… मैनेजमेंट तुम्हारे काम से बहुत ख़ुश है... अब दुबई ऑफ़िस में तुम्हारे जैसे होनहार और क़ाबिल व्यक्ति की ज़रूरत है... तुम्हें रहने के लिए घर... अच्छी तनख़्वाह... गाड़ी… सब मिलेगा... और हाँ... तुम्हें आने वाले सोमवार को ही दुबई ऑफ़िस में रिपोर्ट करना है… कन्ग्रैचलैशन वंस अगेन ऐंड ऑल दी वेरी बेस्ट”। मेरे लिए यह ख़बर प्रोमोशन तक तो बहुत अच्छी थी। मगर ट्रांसफ़र की बात ने मेरी ख़ुशी को फ़ीका कर दिया। मैं मन ही मन सोचने लगा कि मैं यह प्रोमोशन स्वीकार नहीं करूँ या नहीं। मुझे दिल्ली, माँ-पापा, अपनी पत्नी प्रिया, अपने यार दोस्त सभी को छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाना। और वैसे भी प्रिया छह महीने के गर्भ से है। उसे हर समय मेरी ज़रूरत होगी। हमारी पहली संतान होने वाली है। और फिर मैंने मिस्टर एल्बर्टो की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा, “थैंक्स सर थैंक्स वेरी मच… बट लेट मी थिंक अबाउट इट... दैट आई विल टेक दिस ऑपोरचूनिटी ऑर नॉट...”। मैं जानता था कि मेरा यह जवाब बहुत असभ्य, अपरिपक्व और अव्यवसायिक था। इसके लिए मुझे मिस्टर एल्बर्टो के भाषण सुनने पढ़ सकते थे। या मेरे ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई भी हो सकती थी। और ऐसा हुआ भी, मिस्टर एल्बर्टो ने अपनी प्रेरणादायक बातों से क़रीब एक घंटा मेरा ब्रेन-वॉश करने की कोशिश की। सफल ज़िंदगी के लिए कठिन परिश्रम के उदाहरणों से मेरे लिए, अपना कैबिन भर दिया। और आख़िरी में अपने ज्ञान का अंत करते हुए कहा, “तुम्हारे पास सिर्फ़ इस गुरुवार तक का समय है... अच्छे से सोच लो... और फिर मुझे बताओ... वरना आने वाले पाँच साल पड़े रहो इसी कुर्सी पर...”। वैसे इसमें कोई शक़ नहीं है कि मिस्टर एल्बर्टो मेरे शुभ चिंतकों में से एक हैं। ऑफ़िस में हमेशा मेरे काम की सराहना किया करते हैं। मुझे जब भी कभी छुट्टियों की ज़रूरत होती है, तो बिना किसी रोक-टोक के मेरी छुट्टियाँ अप्रूव कर देते हैं। शाम को घर पहुँचकर, मैंने उदास चेहरे से यह ख़ुशख़बरी माँ-पापा और प्रिया को सुनाई। यह ख़ुशख़बरी सुनकर वह लोग बहुत ख़ुश हुए। माँ ने फ़ौरन रेफ़्रीजरेटर में तीन दिन पुरानी रखी मिठाई से मेरा मुँह मीठा करवाया। और कहने लगीं, “तेरी औलाद भी तेरे लिए ठीक उसी तरह भाग्यशाली है... जैसे तू अपने पापा के लिए था... तुझे मालूम है... जब तूने जन्म लिया था... तब तेरे पापा की भी तरक़्क़ी हुई थी... हमने दिल्ली जैसे बढ़े शहर में घर बनाया था...”। इतना कहकर माँ, पापा की तरफ़ देखते हुए भावुक हो गईं। वाकई उनके स्नेह के आगे दुनिया की हर एक चीज़ क़ुर्बान है। मगर मैंने ट्रांसफ़र वाली ख़बर अभी तक, ना तो माँ-पापा को बताई थी। और न ही प्रिया को। मैं संकोच में था कि कहीं ट्रांसफ़र की ख़बर सुनकर उन तीनों लोगों को दुख न पहुँचे। आख़िरकार डिनर के समय मैंने ट्रांसफ़र की ख़बर, माँ-पापा और प्रिया के सामने रख ही दी। ख़बर सुनकर तीनों को थोड़ा धक्का ज़रूर लगा था। माँ और प्रिया, दोनों मेरी तरफ़ हैरानी भरी नज़रों से देखने लगीं। मैंने उन्हें बताया कि मैंने अभी ज्वाइन करने लिए हाँ नहीं कहा है। वैसे भी मैं अपने घर-परिवार, बसी-बसाई गृहस्ती को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता। मगर अचानक ही बहुत गंभीरता से पापा ने मेरे हाथ पर, अपना हाथ रखते हुए कहा, “शिवा... इस मौके का तुम्हें लाभ उठाना चाहिए... यह तुम्हारी क़ाबिलियत के बल पर तुम्हें हासिल हुआ है... नियति बार-बार ऐसे मौके नहीं देती... और फिर रही हमारी बात... तो हम सब चीज़ों का प्रबंध कर लेंगे... तुम अपनी माँ और मेरे कारण... आते मौके को मत ठुकराओ... कुछ ही दिनों में तुम पिता बन जाओगे... भावुकता और पारिवारिक स्नेह अपनी तरफ़ ठीक हैं... मगर आज के समय में... वास्तविकता से थोड़ा नज़र मिलाओ बेटा... और देखो कि आख़िर दुनिया कहाँ जा रही है... और फिर बहू और तुम्हारे हर मुश्किल समय में... मैं और तुम्हारी माँ हर दम तुम्हारे साथ हैं... तुम जब हमें याद करोगे... अपने क़रीब पाओगे... तुम बहू को लेकर इसी शुक्रवार चेन्नई निकल जाओ...”। इतना कहकर माँ-पापा, एक-दूसरे की तरफ़ बहुत गंभीरता से देखने लगे। उन्होंने मन ही मन बिना शब्दों के शायद एक दूसरे से कह दिया था कि अब समय आ गया कि हमारा बेटा, घौंसले से निकलकर बाहर की दुनिया में उड़ना सीखे। मैं और प्रिया, शुक्रवार की शाम, दिल्ली और माँ-पापा को छोड़कर दुबई के लिए रवाना हो गए। एयरपोर्ट पर हमें विदा करते समय माँ और प्रिया, दोनों एक-दूसरे के गले लगकर बहुत रो रही थीं। पापा अपनी भावनाओं को संभाले हुए, माँ से थोड़ा पीछे खड़े हुए थे। मैंने आगे बढ़कर पापा के पैर छुए। और मेरे सिर पर अपना हाथ रखते हुए, उनकी आँखों से जो आँसूओं की बुँदे ढलकने को थीं, उन्हें नियंत्रित करते हुए बोले, “ख़ुश रहो...”। दुबई, दिल्ली के मुक़ाबले काफ़ी अच्छा आधुनिक शहर है। यहाँ के समुद्रतट भी बहुत सुंदर हैं। यहाँ की ऊँची-ऊँची गगनचुंबी इमारतें बेशक आपका मन मोह लेंगी। दिन में यहाँ मौसम अक्सर गर्म रहता है। और समुद्रतट के क्षोर पर अस्त होते सूर्य की लालिमा को देखने पर, ऐसा प्रतीत होता है जैसे सुहागिनों का सारा सिंदूर उस पानी में आ मिला है। बेशक, अस्त होते सूर्य का वह दृश्य किसी का भी मन मोह सकता है। मुझे और प्रिया को दुबई आए दो महीने हो चुके थे। मगर मेरी यादों में अब भी दिल्ली ही बसी हुई थी। आख़िर बचपन से लेकर जवानी तक, सभी तरह के दिन दिल्ली में बिताए थे। दिल्ली ही वो शहर था, जहां माँ-पापा ने हर प्रकार की मुश्किलों का सामना करके मेरी परवरिश की थी। दिल्ली में ही कॉलेज के दिनों में मुझे पहला प्यार हुआ था। और फिर दिल्ली में मिलने वाला लज़ीज़ खाना, यहाँ दुबई में ढूंढ पाना फ़िलहाल मेरे लिए मुश्किल था। हम दोनों ख़ुद को यहाँ के खाने और भाषा के परिवेश में ढ़ालने की लगातार कोशिश कर रहे थे। हम दोनों ही अक्सर शाम को समुद्रतट पर सैर करने के लिए निकल जाते थे। एक दिन समुद्रतट पर सैर करते हुए अचानक ही प्रिया को जोरों से प्रसव का दर्द होना शुरू हो गया। मैं बेहद घबरा गया था। कुछ समझ नहीं आया। मैंने आनन-फानन में वहाँ टहल रहे कुछेक लोगों की मदद से प्रिया को सिटी अस्पताल पहुँचाया। डॉक्टर्स ने डिलीवरी के लिए बड़ा ऑपरेशन बोल दिया था। मैं परेशान था और बेहद चिंता में था। मुझे माँ-पापा के साथ की बहुत ज़रूरत महसूस थी। मुश्किल समय में माँ-बाप के होने से वाकई इंसान की ज़िंदगी में एक मानसिक बल बना रहता है। मैंने फ़ौरन घबराहट में फ़ोन करके, बड़े ऑपरेशन की बात माँ-पापा को बता दी। उन्होंने मुझे बस सब्र से काम लेने की सलाह दी। और कहा कि वो जल्दी ही मेरे पास होंगे। माँ-पापा से बात हो जाने के बाद, मैंने गहरी साँस ली। और गंभीर निर्णय लेते हुए ऑपरेशन फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर कर दिए। डॉक्टर्स प्रिया को ऑपरेशन थिएटर में ले गए। प्रिया को हो रहे दर्द और आने वाली संतान की सलामती की चिंता को, मेरे चेहरे पर साफ़ देखा जा सकता था। आख़िर आने वाली संतान, मुझे भी पिता के रूप में एक नया जन्म देने वाली थी। ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेंच पर बैठे, मुझे एहसास होने लगा था कि जिस प्रकार मैं अपनी होने वाली संतान के लिए इतना चिंतित हूँ, ठीक उसी प्रकार मेरे माँ-पापा ने भी तो मेरी ख़ुशियों के लिए कितने त्याग और संघर्ष किए हैं। मैं उनके संघर्षों को कभी नहीं भुला सकता। वह दोनों ही मेरे जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण इंसान हैं। पापा मेरे लिए असली हीरो हैं। जीवन में अनेक परेशानियों से लड़कर आगे बढ़ने के उनके अंदाज़ ने, मुझ में किसी भी काम को करने के लिए प्रेरणा और ज़ज़्बा दिया है। उन्होंने परिवार की जीविका के लिए बहुत मेहनत की है। मुझे अच्छी तरह याद है, मैं जब भी दुखी होता था, वह मुझे हमेशा ख़ुश करने के लिए ढेर सारे खिलौने लाया करते थे। एक बार मैंने ज़िद में कैरमबोट मांगा था, तब उन्होंने बहुत ख़ुशी से कैरमबोट मुझे दिलवाया था। बाद में मेरे मामा के बच्चे हमारे घर से वह कैरमबोट उठा कर ले गए। पापा ने बचपन में मुझे एक बार बोलने वाला रोबोट भी दिलवाया था। उसका नाम साइनेट था। बचपन में साइनेट मेरा सबसे अच्छा दोस्त था। मगर बढ़ती उम्र की आकांक्षाओं के चलते, मैंने साइनेट को तोड़ दिया। पापा को दु:ख हुआ था। मगर उन्होंने मुझे तब भी कुछ नहीं कहा। वह हमेशा मुझे अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित किया करते हैं। अक्सर वह दफ़्तर जाने से पहले, मेरे लिए स्वादिष्ट खाना बनाकर जाते थे। क्योंकि मुझे बचपन में माँ के हाथ का खाना इतना स्वाद नहीं लगता था। मैंने उनके जीवन दर्शन से, सही और गलत को परखने का ज्ञान सीखा। परेशानियों में संघर्ष करना सीखा। एक संवेदनशील और सहनशील इंसान बनना सीखा। निःसन्देह, वह ईश्वर द्वारा दिए गए, मेरे जीवन में दुनिया के सबसे अच्छे इंसान हैं। जब मैं सात वर्ष का था, वह अपने दोस्त मिश्रा अंकल का नाटक दिखाने ले गए थे। रंगमंच के उस मंच ने मेरे अंदर सृजनात्मक क्षमता को जन्म दिया। मैंने काफ़ी समय पापा की ही मदद से, मिश्रा अंकल के यहाँ रंगमंच में अपना भविष्य तराशा था। पापा ने हर मुश्किल समय में मेरा साथ दिया। उन्होंने कभी मेरे साथ हिंसक बर्ताव नहीं किया। जब कॉलेज के अपरिपक्व दिनों में प्यार का भूत, मेरे सिर पर सवार था, सभी यार दोस्त, शुभ चिंतक कहते रह गए थे कि शिवानी और मैं एक दूसरे के लिए नहीं बनें, मगर मैंने किसी की नहीं सुनी थी। और 21 वर्ष की अपरिपक्व उम्र में, शिवानी के साथ शादी की मंज़ूरी लेने, पापा के सामने जा खड़ा हुआ था। पापा ने मेरी ख़ुशी के लिए मेरे प्यार को स्वीकार तो कर लिया था। उन्होंने शिवानी और मेरी शादी को मंज़ूरी दे दी थी। लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था। शिवानी और मैं, निजी वजहों से शादी से पहले ही अलग हो गए। मेरे टूटे दिल को देख कर, पापा को बहुत दुख हुआ था। मगर मेरे मुश्किल समय में, उनके सहयोग ने मुझे, अपने और पराए का बोध करवाया था। उन्होंने हमेशा मुझे जीवन में वह काम करने की आज़ादी दी, जो भी मुझे पसंद था। उन्होंने मुझे कभी कर्तव्यों में बांध कर नहीं रखा। मेरे ग्रैजुएट होने के बाद, माँ चाहती थीं कि मैं नौकरी करूँ। मगर मैं आगे पढ़ना चाहता था। एम.ए. करना चाहता था। पापा ने ही मुझे एम.ए. में दाख़िला दिलवाया था। वह हमेशा कहते कि मैं पैसा लगा दूँगा, सही और ग़लत तुझ पर निर्भर करता है। मगर अफ़सोस, मैं एक अच्छा बेटा कभी नहीं बन सका। मैंने हमेशा उनका दिल दुखाया। और वह बिना किसी शिक़ायत के हमेशा मेरे साथ, मेरा साया बनकर खड़े रहे। हम अपने जीवन में अक्सर माँ के बलिदान और त्याग को सर्वोच्च स्थान देते हैं, मगर पिता हमारे जीवन में वह व्यक्ति होता है, जो हमें दुनिया में उंगली पकड़ कर चलना सिखाता है। पूरे महीने नौकरी में मेहनत कर, हमारा पेट भरता है। हमारी सभी ख़ुशियों का ध्यान रखता है। अब तक रात के दो बज चुके थे। पापा की इतनी सारी बातों को याद करते हुए, मैं ख़ुद को अपने पिता और अपनी होने वाली संतान के बीच, बन रहे एक नव निर्मित सेतु जैसा महसूस कर रहा था। पापा की असंख्य बातों को याद कर ही रहा कि तभी अस्पताल की लॉबी में सामने से, पापा साक्षात माँ के साथ चलते हुए आ रहे थे। मैं खड़ा हुआ और दौड़ कर उनके पास गया। और उनके चरण स्पर्श करते हुए उन्हें गले लगा लिया। और माँ मुझे देखते हुए बोली, “घबरा क्यों रहा है... तेरे पापा ने कहा था न कि जब भी तू हमें याद करेगा... अपने क़रीब पाएगा...”। हम तीनों की बातें चल ही रही थीं कि अस्पताल की मलयाली नर्स ने आकार ख़ुशख़बरी दी, “कॉन्ग्रेटूलेशन मिस्टर शिवा... यू आर ब्लेश्ड विद अ बेबी गर्ल... आप पिता बन गए हैं...”।