जब भी मैं खुले आकाश मे, चाँदनी रात में तुझे ढूँढने की कोशिश करता हूँ, तुम हमेशा वही फ़लक पे नज़र आती हो, वही मुस्कुराता हुआ तेरा चेहरा और चंचलता और मासूमियत से भरा हुआ। अचानक जब बादल घिरते है और उन काली व्योम के पीछे तुम अपने चाँद से चेहरे को ढक लेते हो ताकी तुम अपनी तन्हाईयों को छुपा सको, ये बादलों के बीच की खामोशी और इस खामोशी के भीतर की आवाज़ मेरे कानों तक अपनी दस्तक देती है और मेरे रोम रोम तक उसकी आह पहुचाती है, मेरे हर कोशिश के तुरंत बाद अचानक बादल छटने शुरू हो जाते है और जिस चाँद को देखने और सुनने के लिए मैं हर एक दिन सुबह और शाम का इंतेज़ार करता हूँ अपने दीदार देने को आतुर, पर ये क्या, फ़िर से तेरा मद्धम मद्धम आँख मिचौली का खेल, वैसे ही जैसे मेरी बारिश वाली कविता!