हर तरफ़ नाद था बस आज़ादी का । छोड़ चुके थे हर मंजर उस ग़ुलामी का ख़ुशियों की बौछार थी हर आँगन में । बस दुखी थे वे,आग थी जिनके दामन में हर कोई चाहता था बटवारा बस शांति से हो कुछ स्वार्थ परख हिंसा फैला रहे थे बस मालूम हो। इस आज़ादी की क़ीमत भी हमें देनी थी अनचाही हिंसा जो मिली झोली में,वह झेलनी थी। हिंदू मुस्लिम जो लड़े साथ सन् १८५७ में रक्त के प्यासे बन चुके थे सान् १९४७ में । इन सत्तर वर्षों में भी द्वेष कुछ काम ना हुआ जो पाकिस्तान बना था उसका भी भाग बांग्लादेश हुआ । कब तक हम क्षेत्रवाद में रह कर जी पाएंगे कल कोई क्षेत्र अलग हुआ तो क्या हम रोक पाएंगे? स्वतंत्रता की जयंती पर भूनानी होगी नई सोच क्यों लड़ते हैं जाति व भाषा की ख़ातिर रोज़ रोज़। पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी अगर हो सकते हैं पुनः साथ तो भारत,पाक व बांग्लादेश भी रह सकते हैं साथ साथ। ~अम्बे प्रताप सिंह